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16 / May / 2020


शिव रात्री व्रत की महिमा

लोमश जी कहते हैं-ब्रह्मा ने जब सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की, तब राशियों कालचक्र उत्पन्न हुआ । उस काल विक्रम सब कार्य की सिद्धि के लिये बारह राशियाँ और सत्ताईस नक्षत्र मुख्य हैं । इन बारह राशियों और सत्ताईस नक्षत्रों के साथ क्रीडा करता हुआ कालचक्र सहित काल जगत्को उत्पन्न करता है। ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सबको काल ही उत्पन्न करता, वही पालन करता और वही संहार करता है। एकमात्र काल से ही यह सारा जगत् बंधा हुआ है, अकेला काल ही इस लोकमें बलवान है, दूसरा नहीं । अतः यह सब प्रपञ्च कालात्मक है। सबसे पहले काल हुआ । कालसे ही स्वर्गलोक के अधिनायक उत्पन्न हुए । तदनन्तर लोक की उत्पत्ति हुई। उसके बाद त्रुटि हुई । शुरुआत से लव हुआ। लव से क्षण हुआ । क्षण निमिष हुआ जो प्राणियों में निरंतर देखा जाता है । साठ निमि का एक पल कहा जाता है। साठ पल की एक घडी होती है । साठ घड़ी का एक दिन गत होता है। पंद्रह दिन-रातका एक पक्ष माना जाता है। दो पक्ष का एक मास और बारह महीनों का एक वर्ष होता है। काल को जानने की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंको इन सब बातोंका ज्ञान रखना चाहिये । प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक पक्ष पूरा होता है। उस दिन पक्ष पूर्ण होनेके कारण ही उसे पूर्णिमा कहते हैं। जिस तिथि को पूर्ण चन्द्रमा का उदय होता है, वह पूर्णिमा देवताओं को प्रिय है तथा जिस तिथि को चन्द्रमा लुप्त हो जाते हैं, उसे विद्वानोंने अमावस्या कहा है। अग्नि ध्वात्त आदि पितरोंको वह अधिक प्रिय है ये तीस दिन पुण्यकालसे संयुक्त होते हैं। इनमें जो विशेषता है उसे आपलोग सूने। योगों में व्यतीपात, नक्षत्र में श्रवण , तिथियों में अमावस्या और पूर्णिमा तथा संक्रान्ति काल ये सब दान-धर्म में पवित्र माने गये हैं ।

भगवान् शङ्कर को अष्टमी प्रिय है। गणेशजी को चतुर्थी, नागराज को पञ्चमी, कुमार कार्तिकेय को षष्ठी, सूर्यदेव को सप्तमी, दुर्गा की नवमी, ब्रह्माजी दशमी, रुद्रदेव एकादशी, भगवान विष्णु को द्वादशी, कामदेव का त्रयोदशी तथा भगवान् शङ्कर चतुर्दशी विशेष प्रिय है। कृष्ण पक्ष में जो चतुर्दशी अर्धरात्रि व्यापिनी हो, उसमें सबको उपवास करना चाहिये । यह भगवान शिव का सायुज्य प्रदान करनेवाली है। वह शिवरात्रि के नाम से विख्यात है । यह सब पापों का नाश करने वाली है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकालमें कोई विधवा ब्राह्मणी थी, जिसकी प्रकृति बड़ी चंचल थी। वह काम भोग में आसक्त रहती थी ।अतः किसी कामी चाण्डालके साथ उसका संबंध हो गया। उसके गर्भसे दुरात्मा चाण्डाल से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम दुस्सह था। दुस्सद बड़ा ही दुष्टात्मा था । वह सब धर्म के विपरीत ही आचरण करता था । महान् पापपूर्ण प्रयोगों के द्वारा वह सदा नये नये पाप प्रारम्भ करता था । यह जुआरी, शराबी, चोर,गुररीगामी, बधिक दुष्ट आत्मा तथा चाण्डालोचित कर्म करनेवाला था।

एक दिन वह अधर्मी मनमें कोई बुरी वृत्ति लेकर ही किसी शिवालयमें गया । उस दिन शिवरात्रि थी। वह रात में भगवान शिव के पास उपवास पूर्वक रहा और वहां पास ही देवात होती हुई शैव शास्त्र की कथा सुनता रहा । वहाँ उसे स्वरूप भगवान शिव का दर्शन हुआ दुष्ट होते हुए भी उसने एक रात व्रत किया और शिवरात्रि जागता रहा। उसी शुभ कर्मके परिणामसे उसने पुण्ययोनि प्राप्त करके बहुत वर्षो तक पुण्यात्माओं के लोक में सुख-भोग किया ।तदनंतर वहां राजा चित्रागद का पुत्र हुआ उसमें राजराजेश्वरी- के लक्षण थे । वहाँ वह विचित्रवीर्य के नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसका रूप सुन्दर था । उसे सुन्दरी स्त्रियाँ प्यार करती थीं। उसने बहुत बड़ा राज्य प्राप्त करके भी अपने मनमें अहंकार नहीं आने दिया । भगवान शिव की भक्ति करते हुए वह सदा शिवधर्मके पालनमें ही तत्पर रहा। शिवसम्बन्धी शास्त्रो की मान्यता देकर वह उन्हीं के अनुसार शिव की पूजा किया करता था । भगवान शिव के समीप यत्न पूर्वक रात्रि में जागरण करके भगवान शिव कीगाथाका गान करता और रोमाञ्चित होकर नेत्रोसे आनन्दके अश्रु कण बहाया करता था। भगवान शिव की कथा सुनने से उसमें प्रेमके सभी लक्षण प्रकट हो जाते थे। उसे देवाधिदेव शिव की प्रेम लक्षणा भक्ति प्राप्त हुई ।

भगवान शिवके ध्यान में निरन्तर संलग्न रहनेके कारण उसकी सारी आयु व्रत में ही बीती। भगवान शिव इस संसार में पशुओं (अज्ञानियों) तथा ज्ञानीयों को समान रूपसे सुलभ है। अतः सुखकी प्राप्तिके लिये एकमात्र सदाशिवका ही सेवन करना चाहिये । शिव रात्री के उपवास से राजा को उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। उस ज्ञान से सब प्राणियों में निरन्तर समभावका अनुभव हुआ। फिर, एकमात्र भगवान सदाशिव ही सब भूतोके आत्मारूप है। इस ज्ञान का साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात यह अनुभव हुआ कि इस संसार में कहीं कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो भगवान शिव से रहित हो । इस प्रकार उन्होंने अत्यन्त दुर्लभ एवं पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया । फिर यह ज्ञान विश पुरुषों के लिये भी अत्यंत दुर्लभ है, फिर औरोकी तो बात ही क्या है। राजा विचित्रवीर्य वह ज्ञानप्राप्त करके भगवान शिव के अत्यन्त प्रिय भक्त हो गये। शिवरात्रि के उपवास से उन्होंने सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर ली। उसी पुष्प के प्रभाव से उन्होंने शिवजी की लीला मे योग देने के लिये शिवजी से ही दिव्य जन्म प्राप्त किया ।


दक्षकन्या सतीसे जब शिवजी का वियोग हुआ तब उनके जटा फटकार ने के शब्द से उन्हीं के मस्तक से जो वीरभद्र नामक वीर उत्पन्न हुआ, वह राजा विचित्रवीर्य ही है। वही दक्ष-यज्ञ का विनाश ने वाला हुआ।


इसी प्रकार अन्य बहुत-से मनुष्य भी शिवरात्रि- व्रत के प्रभाव से पूर्ण काल में सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। राजा भारत आदि तथा मान्धाता, धुन्धुमार और हरिचन्द्र आदि नरेश भी इस (विचित्र वीर्य द्वारा किये हुए) उत्तम शिव रात्रि व्रत का अनुष्ठान करके ही सिद्धिको प्राप्त हुए हैं। इन सबके अतिरिक्त भी बहुत से कुल इस श्रेष्ठ व्रत के द्वारा तारे गये हैं, जिनकी गणना का वर्णन करना असम्भव है।

देवाधिदेव जगदीश्वर शिव ने अपने वीरभद्र आदि असंख्य गणों के साथ कैलाश में राज्य किया है। वह भगवान रुद्र के साथ ऋषि और इन्द्रादि देवता भी सेवामें उपस्थित रहते हैं। ब्रह्माजी उनकी स्तुति करते रहते हैं भगवान विष्णु आज्ञापालक सेवक की भांति खड़े होते हैं। इन्द्र सब देवताओं के साथ सेवा-धर्म का पालन करते हैं। चन्द्रमा भगवान के मस्तक पर छत्र धारण करते हैं और वायुदेव चँवर डुलाते हैं। साक्षात् अग्नि देव ही सदा उनके रसोइया बने रहते हैं। स्वर्ग वासी गन्धर्व उनके दरबार में गीत गाते और स्तुति-पाठ करते हैं । इस प्रकार भगवान महेश्वर कैलाश पर्वत पर अपने प्रतापी पुत्र गणेश और कार्तिकेय आदिके साथ तथा महारानी गिरिराज नंदिनी उमा के साथ महान् पराक्रम का परिचय देते हुए कार्य करते है।

स्कन्द पुराण की कथा