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24 / Apr / 2021


जन्म और मरण संबन्धीत सूतक का वर्णन भाग - 1

पुष्कर कहते हैं- अब मैं 'प्रेतशुद्धि' तथा 'सूतिका शुद्धि का वर्णन करूंगा । सपिण्डोंमें अर्थात् मूल पुरुषकी सातवीं पीढ़ीतककी संतानोंमें मरणाशौच दस दिनतक रहता है। जननाशौच(जन्म समय का सूतक) भी इतने ही दिनतक रहता है। 

परशुरामजी! यह ब्राह्मणों के लिये अशौच(सूतक)की बात बतलायी गयी। क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पंद्रह दिनोंमें तथा शूद्र एक मासमें शुद्ध होता है।  स्वामीको अपने घरमें जितने दिनका अशौच लगता है, सेवकको भी उतने ही दिनोंका लगता है। क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का भी जननाशौच दस दिनका ही होता है। परशुरामजी! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इसी क्रमसे शुद्ध होते हैं। वैश्य तथा शूद्रके जननाशौचकी निवृत्ति पंद्रह दिनोंमें होती है। यदि बालक दाँत निकलनेके पहले ही मर जाय तो उसके जननाशौचकी सद्य:शुद्ध मानी गयी है। दाँत निकलनेके बाद चूडाकरण(मुंडन )से पहले की मृत्यु में एक रातका अशौच होता है, यज्ञोपवीत के पहले तक तीन रातका तथा उसके बाद दस रातका अशौच बताया गया है। तीन वर्षसे कमका शूद्र-बालक यदि मृत्यु को प्राप्त हो तो पाँच दिनोंके बाद उसके अशौच की निवृत्ति होती है । तीन वर्ष के बाद मृत्यु होने पर बारह दिन बाद शुद्ध होती है तथा छः वर्ष व्यतीत होनेके पश्चात् उसके मरणका अशौच एक माह के बाद निवृत्त होता है।

कन्याओं में जिनका मुण्डन नहीं हुआ है, उनके मरणाशौचकी शुद्धि एक रातमें होनेवाली मानी गयी है और जिनका मुण्डन हो चुका है, उनकी मृत्यु होनेपर उनके बन्धु-बान्धव तीन दिन बाद शुद्ध होते हैं। जिन कन्याओंका विवाह हो चुका है, उनकी मृत्यु के अशौच पितृ काल को नहीं प्राप्त होता। जो स्त्रियाँ पिताके घरमें संतानको जन्म देती हैं, उनके उस जननाशौचकी शुद्धि एक रातमें होती है। किंतु स्वयं सूतिका दस रातमें ही शुद्ध होती है, इसके पहले नहीं। यदि विवाहित कन्या पिता के घर में मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो उसके बन्धु बान्धव निश्चय ही तीन रातमें शुद्ध हो जाते हैं। जिस कन्याका वाग्दान नहीं किया गया है (और चूडाकरण हो गया है), उसकी यदि वाग्दान से पूर्व मृत्यु हो जाय तो बन्धु-बान्धवोंको एक दिनका अशौच लगता है। जिसका वाग्दान तो हो गया है, किंतु विवाह- संस्कार नहीं हुआ है, उस कन्याके मरनेपर तीन दिनका अशौच लगता है। यदि ब्याही हुई बहन या पुत्री आदिकी मृत्यु हो तो दो दिन एक रातका अशौच लगता है। कुमारी कन्याओंका वहीं गोत्र है, जो पिता का है। जिनका विवाह हो गया है, उन कन्याओंका गोत्र वह है, जो उनके पति का है। विवाह हो जानेपर कन्याकी मृत्यु हो तो उसके लिये जलाञ्जलि-दानका कर्तव्य पिता पर भी लागू होता है; पति पर तो है ही तात्पर्य यह कि विवाह होनेपर पिता और पति-दोनों कुलोंमें जलदानकी क्रिया प्राप्त होती है। कन्या के भतीजे को दो दिन एक रातका अशौच लगता है। किंतु अन्य सपिण्ड पुरुषों की तत्काल शुद्धि हो जाती है। नाना और आचार्यके मरनेपर भी तीन राततक अशौच रहता है।




पुष्कर कहते हैं-अब मैं मनु आदि महर्षियोंकि मतके अनुसार गर्भस्त्राव-जनन अशौचका वर्णन करूंगा।  परशुराम जी! यदि स्त्री का गर्भ गिर जाय तो जितने मासका गर्भ गिरा हो, उतनी रातें बीतनेपर उस स्त्री की शुद्धि होती है।चौथे मासके स्त्राव तथा पांचवें, छठे मास के गर्भपात तक यह नियम है कि जितने महीने पर गर्भ स्खलन हो, उतनी ही रात्रियोंके द्वारा अथवा तीन रात्रियोंके द्वारा स्त्रियोंकी शुद्धि होती है । सातवें माससे दस दिनका अशौच होता है। (प्रथमसे तीसरे माह तक के गर्भस्राव में ब्राह्मण के लिये तीन राततक अशुद्धि रहती है।) क्षत्रिय के लिये चार रात्रि, वैश्य के लिये पाँच दिन तथा शूद्रों के लिये आठ दिन तक अशौच का समय है। सातवें माह से अधिक होनेपर सबके लिये बारह दिनोंकी अशुद्धि होती है। 




सपिण्ड ब्राह्मण- कुलमें मरणाशौच होनेपर उस कुलके सभी लोग सामान्यरूपसे दस दिनमें शुद्ध हो जाते हैं। सभी वर्णके लोगोंको अशौचका एक तिहाई समय बीत जानेपर शारीरिक स्पर्श का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस नियमके अनुसार ब्राह्मण आदि वर्ण क्रमशः तीन, चार, पाँच तथा दस दिनके अनन्तर स्पर्श करनेके योग्य हो जाते हैं। ब्राह्मण आदि वर्गों के अस्थि संचय क्रमशः चार, पाँच, सात तथा नौ दिनोंपर करना चाहिये।  ब्राह्मण सजातीय पुरुषों से यहाँ जन्म-मरणमें सम्मिलित हो तो दस दिनमें शुद्ध होता है और क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के यहाँ जन्म-मृत्यु में सम्मिलित होनेपर क्रमशः छ:, तीन तथा एक दिनमें शुद्ध होता है यह अशौच-सम्बन्धी नियम निश्चित किया गया है, औरस-भिन्न क्षेत्रज, दत्तक आदि पुत्रोंके मरनेपर तथा जिसने अपनेको छोड़कर दूसरे पुरुष से सम्बन्ध जोड़ लिया हो अथवा जो दूसरे पति को छोड़कर आयी हो और अपनी भार्या बनकर रहती रही हो, ऐसी स्त्रीके मरनेपर तीन रात में अशौच की निवृत्ति होती है।


स्वधर्मका त्याग करनेके कारण जिनका जन्म व्यर्थ हो गया हो, जो संन्यासी बनकर इधर-उधर घूमते-फिरते रहे हों और जो अशास्त्रीय विधिसे विष-बन्धन आदिके द्वारा प्राणत्याग कर चुके हों, ऐसे लोगोंके निमित्त बान्धवोंको जलाञ्जलि-दान (पींडदान)नहीं करना चाहिये; उनके लिये उदक-क्रिया निवृत्त हो जाती है। एक ही माता द्वारा दो पिताओंसे उत्पन्न जो दो भाई हों, उनके जन्ममें सपिण्ड पुरुषों को एक दिनका अशौच लगता है और मरने पर दो दिनका। यहाँतक सपिण्डोंका अशौच बताया गया। 

दांत निकलनेसे पहले बालक की मृत्यु हो जाय, कोई सपिण्ड (एक कुल के)पुरुष देशान्तर में रहकर मरा हो और उसका समाचार सुना जाय तो वस्त्रसहित जलमें डुबकी लगानेपर तत्काल ही शुद्ध हो जाती है। मृत्यु तथा जन्मके अवसरपर सपिण्ड पुरुष दस दिनोंमें शुद्ध होते हैं, एक कुलकर सपिण्ड पुरुष तीन रातमें शुद्ध होते हैं और एक गोत्र वाले पुरुष स्नान करनेमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं। सातवीं पीढ़ी में सपिण्ड भाव निवृत्ति हो जाती है और चौदहवीं पीढ़ीतक समानोदक सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है। किसी को जन्म और नामका स्मरण न रहनेपर अर्थात् हमारे कुलमें अमुक पुरुष हुए थे, इस प्रकार जन्म और नाम दोनोंका ज्ञान न रहनेपर-समानोदकभाव निवृत्त हो जाता है । इसके बाद केवल गोत्र का सम्बन्ध रह जाता है।