मरण के बाद कि क्रियाओं का महत्व क्या है भाग -3
मृत्यु और दाहके बीच मनुष्य के क्या कर्तव्य है? इस प्रश्न का उत्तर अब तुम सुनो।
व्यक्तिको मरा हुआ जानकर उसके पुत्रादिक परिजनोंको चाहिये कि वे सभी शवको शुद्ध जलसे स्नान कराकर नवीन वस्त्रसे आच्छादित करें। तदनन्तर उसके शरीरमें चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों का अनुलेप भी करें उसके बाद जहाँ मृत्यु हुई है, उसी स्थान पर एकोदिष्ट श्राद्ध करना चाहिये । दाहकर्मके पूर्व शवको दाहके योग्य बनानेके लिये ऊपर बताये गये कर्म अनिवार्य है ।
हे खगेश! मरणस्थान, द्वार, चत्वर, विश्रामस्थान, काष्ठ-चयन और अस्थि-संचयन-ये छः पिंडदान स्थान हैं। प्राणी की मृत्यु जिस स्थानपर होती है, वहाँपर दिये जानेवाले पिण्ड का नाम 'शव' है, उससे भूमि देवता की तुष्टि होती है। द्वारपर जो पिण्ड दिया जाता है उसे पंथ' नामक पिण्ड कहते हैं। इस कर्म को करने से वास्तु देवता को प्रसन्नता होती है। चत्वर अर्थात् चौराहेपर 'खेचर' नामक पिंड का दान करनेपर भूतादिक, गगनदारी देवतागण प्रसन्न होते हैं। शवके विश्राम भूमि में 'भूत-संज्ञक' पिण्डका दान करनेसे दसों दिशाओं को संतुष्टि प्राप्त होती है। चिता में 'साधक' नामका और अस्थि-संचय में "प्रेत संज्ञक' पिण्ड दिया जाता है।
शव यात्रा के समय पुत्रादिक परिजन तिल, कुश, घृत और इंधन लेकर 'यमगाथा' अथवा वेद के यमसूक्त का पाठ करते हुए श्मशानभूमिकी ओर जाते हैं। ' ॐ अपने ति ' इस यम सूक्त का अथवा 'यमगाथा' का पाठ शवयात्राके मार्गमें करना चाहिए सभी बन्धु बान्धवोंको दक्षिण दिशा में स्थित श्मशान की वन भूमि में शवको ले जाना चाहिये। हे पक्षिन्! पूर्वोक्त विधिसे मार्गमें दो श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद श्मशानभूमिमें पहुँचकर धीरेसे शवको पृथ्वीपर उतारते हुए दक्षिण दिशा की ओर सिर स्थापित कर चिताभूमिमें पूर्वोत्क विधिके अनुसार श्राद्ध करना चाहिये। शव-दाह क्रिया के लिये पुत्रादिक परिजनों को स्वयं तृण, काष्ठ, तिल और घृत आदि ले जाना चाहिये। शूद्रों के द्वारा श्मशानमें पहुँचायी गयी वस्तुओंसे वहाँ किया गया सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाता है। वहाँपर सभी कर्म अपसव्य और दक्षिणाभिमुख होकर करना चाहिये। हे पक्षिराज! शास्त्रसम्मत विधिके अनुसार एक वेदीका निर्माण करना चाहिये। तदनन्तर प्रेतवस्त्र अर्थात् कफनको दो भागोंमें फाड़ कर उसके आधे भागसे उस शव को ढक दे और दूसरे भागको श्मशानमें निवास करनेवाले प्राणीके लिये भूमिपर ही छोड़ दे। उसके बाद पूर्वोक्त विधिके अनुसार मरे हुए व्यक्तिके हाथमें पिंडदान करे तदनन्तर शवके सम्पूर्ण शरीरमें घृतका लेप करना चाहिये।
हे खगेश! प्राणी की मृत्यु और दाह-संस्कार के बीच पिंडदान की जो विधि है, अब उसे सुनो। पहले बताये गये मृतस्थान, द्वार, चौराहे, विश्राम स्थान अथा काष्ठसंचयन स्थान में प्रदत्त पाँच पिण्डोंका दान करनेसे शव में आहुति (अग्निदाह)-की योग्यता आ जाती है, अथवा किसी प्रकारके प्रतिबन्धके कारण उपयुक्त पिण्ड नहीं दिये गये तो शव राक्षसोंके भक्षण योग्य हो जाता है।
दाह-क्रिया करनेके पश्चात अस्थि-संचय क्रिया करनी चाहिये। हे खगराज ! दाहकी पीड़ाकी शान्तिके लिये प्रेत पिण्ड भी प्रदान करे। तत्पश्चात् वहाँपर गए हुए सभी लोग चीता की प्रदक्षिणा कर कनिष्ठादि क्रमसे सूक्त जपते हुए स्नान के लिए जलाशय आदि पर जायें। वहाँ पहुँच कर अपने वस्त्रोंका प्रक्षालनकर पुनः उन्हें ही पहनकर मृत व्यक्ति का ध्यान करते हुए उसे जल-दान देनेकी प्रतिज्ञा करें। हे कश्यप पुत्र गरुड़! शवदाह तथा तिलांजलि देकर मनुष्य को अश्रुपात नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस समय रोते हुए अपने बन्धु-बान्धवोंके द्वारा आँख और मुँह से गिराये आँसू एवं कफको मरा हुआ व्यक्ति विवश होकर पान करता है। अत: रोना नहीं चाहिए, अपितु यथाशक्ति क्रिया करनी चाहिये। पहले से द्वार पर रखी नीम की पत्तियों को चबाकर आचमन करें। हे पक्षीन् । मनुष्य के दाह-संस्कार की जो विधि है, उसको सामान्य रूपसे मैंने तुम्हें सुना दिया है।
हे गरुड़ ! अब चबूतरे पर पके हुए मिट्टी के पात्र में दूध क्यों रखा जाता है उस विषय में सुनो।
हे काश्यप ! सूत्रसे बंधे हुए तीन काष्ठ को तिगोडिया रात्रि में आकाश के नीचे स्थापित करके चौराहे पर खड़ा कर दे और 'अत्र स्नाहि' एवं 'पिबात्र' इस मन्त्रोच्चारके साथ उसके ऊपर मिट्टी के पात्र में जल और दूध रख दे। ये अस्थि संचयन के लिए है।
प्राणी इस कालमें पिंडदान,अध्ययन और अन्य प्रकार के दान-पुण्यदिक सत्कर्मों से दूर हो जाता है । सपिण्डियों में मरणाशौच दस दिन का माना जाता है। प्राणी के लिये भूमि पर तथा संस्कार-सम्पन्न के लिये कुशपर नौ दिनों में नौ पिण्ड देना चाहिये। उसके बाद दसवें दिन दशवा पिंडदान करे। पहले दिन जो पिंडदान की क्रिया करता है, उसे ही दसवें दिनतक प्रेतकी अन्य समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। चाहे चावल हो, चाहे सत्तू हो, चाहे शाक हो, पहले दिन जिससे पिंडदान करे, उससे ही दस दिन तक पिंडदान करना चाहिये।
हे गरुड! जब तक यह प्रेतजन्य अशौच रहता है तबतक प्रेतको प्रतिदिन एक-एक अञ्जलि बढ़ाते हुए जल दिनकी संख्याके अनुसार वर्धमानक्रमसे उतनी अंजलिदान देनेका विधान है अथवा जिस दिन यह देना हो उस जल-दान करे। इस प्रकार दस दिन पचपन अंजलि पूर्ण करे। यदि अशौच दो दिन बढ़ जाता है तो पुनः उसी निर्धारण करना चाहिये। इन सभी पितृक्रियाओं को सम्पन्न करनेका मुख्य अधिकारी पुत्र ही होता है इस प्रेतश्राद्धमें दूध या जल से पिण्ड का सेवन तथा पुष्प-धूपादिक पदार्थ से पिण्ड का पूजन बिना मन्त्रोच्चार किये ही करना चाहिये। दस दिन केश, श्मश्रु, नख और वस्त्रका परित्याग करके गाँव के बाहर स्नान करना चाहिये। ब्राह्मण जल, क्षत्रिय वाहन, वैश्य प्रतोद (चाबुक) अथवा रश्मि तथा शूद्र छडीको स्पर्श करके पवित्र होता है। मृतसे अल्प वयवाले सपिंणडों को मुण्डन कराना चाहिये।
छः और दस इस प्रकार सोलह पिंडदान करके षोडशी कर्म सम्पन्न करनेका विधान है। यह मलिन षोडशी मृत दिनसे दस दिन में पूर्ण होती है हे पक्ष श्रेष्ठ ! पुत्रादि दस दिनोंतक जो पिंडदान करते हैं, वे प्रतिदिन चार भागों में विभाजित हो जाते हैं उसमें प्रथम दो भागसे आतिवाहिक शरीर, तीसरे भागसे यमदूत और चौथे भागसे वह मृतक स्वयं तृप्त होता है।
नौ दिन और रात्रिमें वह शरीर अपने अंगोंसे युक्त हो जाता है। प्रथम पिंडदानसे प्रेतके शिरोभागका निर्माण होता है। दूसरे पिंडदान से उसके कान-नेत्र और नाक की सृष्टि होती है। तीसरे पिंडदान से क्रमश:-कुष्ठ, स्कन्ध, बाहु एवं वक्ष:स्थल, चौथे पिण्डदानसे नाभि, लिंग और गुदाभाग तथा पांचवें पिण्डदान से जानु, जांघ और पैर बनते हैं इसी प्रकार छठे पिंडदान से सभी मर्मस्थल, सातवें पिंडदान से नाड़ीसमूह, आठवें पिंडदान से दाँत और लोम तथा नवें पिण्डदानसे वीर्य एवं दसवें पिण्डदानसे उस शरीरमें पूर्णता, तृप्ति और भूख-प्यासका उदय होता है।
क्रमश: अगले भाग में