गर्भ की उत्पत्ति का वर्णन
(मानवयोनिके) गर्भमें प्रविष्ट हुआ जीव पहले महीनेमें कलल (रज-वीर्यके मिश्रित बिन्दु) के रूपमें रहता है, दूसरे महीनेमें वह घनीभूत होता है (कठोर मांसपिडं का रुप धारण करता हैं)
हड्डी और मज्जा का काम है शरीर को धारण करना। वीर्यकी वृद्धि शरीरको पूर्ण बनानेवाली होती है। ओज शुक्र एवं वीर्यका उत्पादक है; वही जीवकी स्थिति और प्राण की रक्षा करनेवाला है ओज शुक्र की अपेक्षा भी अधिक सार वस्तु है। वह हृदयके समीप रहता है और उसका रंग कुछ कुछ पीला होता है। दोनों जांघ (ये समस्त पैरके उपलक्षण हैं), दोनों भुजाएँ, उदर और मस्तक ये छः अंग बताये गये हैं त्वचा के छः स्तर हैं। एक तो वही है, जो बाहर दिखायी देती है। दूसरी वह है, जो रक्त धारण करती है। तीसरी किलास (धातुविशेष) और चौथी कुण्ड (धातु विशेष)- को धारण करनेवाली है। पाँचवीं त्वचा इन्द्रियोंका स्थान है और छठी प्राणोंको धारण करनेवाली मानी गयी है। कला भी सात प्रकार की है-पहली मांस धारण करनेवाली, दूसरी रक्तधारिणी, तीसरी जिगर एवं प्लीहा को आश्रय देनेवाली, चौथी मैदा और अस्थि धारण करने वाली, पाँचवीं मज्जा, श्लेष्मा और पुरीषको धारण करनेवाली, जो पक्वाशयमें स्थित रहती है, छठी पित्त धारण करनेवाली और सातवीं शुक्र धारण करनेवाली है। वह शुक्राशय में स्थित रहती है।
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अग्निदेव कहते हैं-वशिष्ठ जी! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका-ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। आकाश सभी भूतोंमें व्यापक है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये क्रमश: आकाश आदि पाँच भूतोंके गुण हैं गुदा, उपस्थ (लिङ्ग या योनि), हाथ, पैर और वाणी-ये 'कर्मेन्द्रिय कहे गये हैं। मलत्याग, विषयजनित आनन्दका अनुभव, ग्रहण, चलन तथा वार्तालाप-ये क्रमशःउपर्युक्त इन्द्रियोंके कार्य हैं। पाँच कर्मेन्द्रिय पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियोंके विषय, पाँच महाभूत, मन, बुद्धि, आत्मा (महत्तत्त्व), अव्यक्त (मूल प्रकृति)-ये चौबीस तत्त्व हैं इन सबसे परे है पुरुष। वह से संयुक्त भी रहता है और पृथक् भी; जैसे मछली और जल-ये दोनों एक साथ संयुक्त भी रहते हैं और पृथक् भी रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण-ये व्यक्ति के आश्रित हैं। अन्तःकरण की उपाधि से युक्त पुरुष जीव' कहलाता है, वही निरुपाधिक स्वरूपसे 'परब्रह्म' कहा गया है, जो सबका कारण है। जो मनुष्य इस परम पुरुष को जान लेता है, वह परम पद को प्राप्त होता है।
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इस शरीरके भीतर सात आशय' माने गये हैं पहला रुधिराशय, दूसरा श्लेष्माशय, तीसरा आमाशय, चौथा पित्ताशय, पाँचवाँ पक्वाशय, छठा वाताशय और सातवाँ मूत्राशय। स्त्रियों के इन सातके अतिरिक्त एक आठवाँ आशय भी होता है, जिसे 'गर्भाशय' कहते हैं। अग्निसे पित्त और पित्त से पक्वाशय होता है। ऋतुकाल में स्त्री की योनि कुछ फैल जाती है। उसमें स्थापित किया हुआ वीर्य गर्भाशयतक पहुँच जाता है। गर्भाशय कमलके आकारका होता है। वही अपनेमें रज और वीर्यको धारण करता है। वीर्यसे शरीर और समयानुसार उसमें केश प्रकट होते हैं। ऋतुकालमें भी यदि योनि वात, पित्त और कफसे आवृत्त हो तो उसमें विकास (फैलाव) नहीं आता। (ऐसी दशामें वह गर्भ-धारणके योग्य नहीं रहती।)
धर्मके ज्ञाता वसिष्ठजी! सबसे पहले रक्तकी उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार रक्त से पित्त उत्पन्न होते हैं। मेदा और रक्त के प्रसार से बुक्का की उत्पत्ति होती है। महाभाग! बुक्का(गुर्दा) से प्लीहा, यकृत, कोष्ठाङ्ग, हृदय, व्रण होते हैं। ये सभी आशयमें निबद्ध हैं। प्राणियों के पकाये जानेवाले रसके सारसे प्लीहा और यकृत होते हैं। रक्त और मांसके प्रसारसे देहधारियोंकी आंतें बनती हैं। पुरुष की आंतों का परिणाम साढ़े तीन व्यायाम बताया जाता है और वेदवेत्ता पुरुष स्त्रियों की आंतें तीन व्यायाम लंबी बतलाते हैं रक्त और वायुके संयोगसे कामका उदय होता है। कफ के प्रकार से हृदय प्रकट होता है। उसका आकार कमलके समान है। उसका मुख नीचे की ओर होता है तथा उसके मध्यका जो आकाश है, इसमें अवस्थित रहता है। चेतनतासे सम्बन्ध रखनेवाले सभी भावोंकी स्थिति वही है। हृदयके वामभागमें प्लीहा और दक्षिणभागमें यकृत् है |
इसी प्रकार हृदयकमलके दक्षिणभागमें क्लोम (फुफ्फुस)-की भी स्थिति बतायी गयी है। इस शरीरमें कफ और रक्त प्रवाहित करनेवाले जो जो स्रोत हैं, उनके भूतानुमानसे इन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। नेत्रमण्डलका जो श्वेत भाग है, वह कफसे उत्पन्न होता है। उसका प्राकट्य पिताके वीर्यसे माना गया है तथा नेत्रोंका जो कृष्ण-भाग है, वह माता के रज एवं वातके अंशसे प्रकट होता है। त्वचा मंडल की उत्पत्ति पित्तसे होती है इसे माता और पिता-दोनोंके अंशसे उत्पन्न समझना चाहिये। मांस, रक्त और कफ से जिह्वा का निर्माण होता है। मैदा, रक्त, कफ और मांस से अंडकोष की उत्पत्ति होती है। प्राणके दस आश्रय जानने चाहिये- मूद्धाँ, हृदय, नाभि, कण्ठ, जिह्वा, शुक्र, रक्त, गुदा , वस्ति (मूत्राशय) और गोल्फ (पांव की गाँठ या घुट्ठी) तथा 'कण्डरा' (नसें) सोलह बतायी गयी हैं। दो हाथ में, दो पैर में, चार पीठमें, चार गलेमें तथा चार पैर से लेकर सिरतक समूचे शरीरमें हैं। इसी प्रकार 'जाल' भी सोलह बताये गये हैं। मांसजाल, स्नायुजाल, शिरा जाल और अस्थिजाल-ये चारों पृथक्-पृथक् दोनों कलाइयों और पैर की दोनों गाँठोंमें परस्पर आबद्ध हैं इस शरीरमें छः कूर्च माने गये हैं मनीषी पुरुषोंने दोनों हाथ, दोनों पैर, गला और लिंग-उन्होंने उनका स्थान बताया है। पृष्ठके मध्यभागमें जो मेरुदण्ड है, उसके निकट चार मांसमयी डोरियाँ हैं तथा उतनी ही पेशियाँ भी हैं, जो उन्हें बाँधे रखती हैं। सात सीरणियाँ हैं। इनमेंसे पाँच तो मस्तकके आश्रित हैं और एक-एक मेढ़ (लिङ्ग) तथा जिह्वा में है। हड्डियाँ अठारह हजार हैं। सूक्ष्म और स्थूल-दोनों मिलाकर चौसठ दाँत हैं। बीस नख हैं इनके अतिरिक्त हाथ और पैरोंकी शलाकाएँ हैं, जिनके चार स्थान हैं। अँगुलियोंमें साठ, एड़ियों में दो, गुल्फोंमें चार, कलियों में चार और जांघों में भी चार ही हड्डियाँ हैं घुटनोंमें दो, गालोंमें दो, ऊरुओंमें दो तथा फलकोंके मूलभागमें भी दो ही हड्डियाँ हैं। इन्द्रियोंके स्थानों तथा श्रोणिफलकमें भी इसी प्रकार दो-दो हड्डियां बतायी गयी हैं। भगमें भी थोड़ी-सी हड्डियां हैं। पीठ में पैंतालीस और गलेमें भी पैंतालीस हैं। गलेकी हसली, ठोड़ी तथा उसकी जड़में दो-दो अस्थियाँ हैं। ललाट, नेत्र, कपोल, नासिक, चरण, पसली, तालु तथा अर्बुद-इन सबमें सूक्ष्मरूपसे बहत्तर हड्डियाँ हैं मस्तकमें दो शङ्ख और चार कपाल हैं तथा छाती में सत्रह हड्डियाँ हैं। संधियाँ दो सौ दस बतायी गयी हैं। इनमेंसे शाखाओंमें अड़सठ तथा उनसठ हैं और अन्तरामें तिरासी संधियाँ बतायी गयी हैं। स्नायु की संख्या नौ सौ है, जिनमेंसे अन्तराधिमें दो सौ तीस हैं, सत्तर ऊर्ध्वगामी हैं और शाखाओंमें छः सौ स्नायु हैं। पेशियाँ पाँच सौ बतलायी गयी हैं। इनमें चालीस को ऊर्ध्वगामी हैं, चार सौ शाखाओंमें हैं और साठ अन्तराधिमें हैं स्त्रयोंकी मांसपेशियाँ पुरुषोंकी अपेक्षा सत्ताईस अधिक हैं। इनमें दस दोनों स्तनोंमें, तेरह योनिमें तथा चार गर्भाशय में स्थित हैं।
देहधारियोंके शरीरमें तीस हजार नौ तथा छप्पन हजार नाड़ियाँ हैं। जैसे छोटी-छोटी नालियाँ क्यारियोंमें पानी बहाकर ले जाती हैं, उसी प्रकार वे नाड़ियाँ सम्पूर्ण शरीरमें रस को प्रवाहित करती हैं क्लेद और लेप आदि उन्हीं के कार्य हैं महामुने! इस देहमें बहत्तर करोड़ छिद्र या रोमकूप हैं तथा मज्जा, मैदा, वसा, मूत्र, पित्त, श्लेष्मा, मल, रक्त और रस यह शरीर मल और दोष आदिका पिण्ड है, ऐसा समझकर अपने अंतःकरण में इसके प्रति होनेवाली आसक्तिका त्याग करना चाहिये।