मरण के बाद कि क्रियाओं का महत्व क्या है भाग-4
हे वैनतेय! अब मैं मध्यम षोडशी विधि का वर्णन करता हूँ। उसको सुनो।
विष्णु से आरम्भ करके विष्णु पर्यन्त एकादश श्राद्ध तथा पाँच देव श्राद्ध इस प्रकार षोडश श्राद्ध किये जाते हैं। इन्हीं का नाम मध्यम षोडशी है। यदि जिस जीवका ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग नहीं होता, सैकड़ों श्राद्ध करनेपर भी उस जीव की प्रेतत्व से मुक्ति नहीं होती है। वृषोत्सर्ग बिना किये ही जो पिंडदान किया जाता है, वह पूर्णतया निष्फल होता है उससे प्रेत का कोई उपकार नहीं होता। इस पृथ्वीपर वृषोत्सर्गके बिना कोई अन्य उपाय नहीं है, जो प्रेतका कल्याण करने में समर्थ हो। अति: पुत्र, पत्नी, दौहित्र (नाती), पिता अथवा पुत्री को स्वजनकी मृत्युके पश्चात् निश्चित ही वृषोत्सर्ग करना चाहिये। चार बछियोंसे युक्त, विधानपूर्वक अलंकृत वृष, जिसके निमित्त छोड़ा जाता है उसको प्रेतत्वकी प्राप्ति नहीं होती। यदि एकादशी के दिन यथाविधान साँड़ उत्सर्ग करनेके लिये उपलब्ध नहीं है तो विद्वान् ब्राह्मण कुश या चावल के चूर्ण से साँड़ निर्माण करके उसका उत्सर्ग कर सकता है। यदि बादमें भी वृषोत्सर्गके समय किसी प्रकार साँड़ नहीं मिल रहा है तो मिट्टी या कुशसे ही साँड़का निर्माण करके उसका उत्सर्ग करना चाहिये। जीवनकालमें प्राणी को जो भी पदार्थ प्रिय रहा हो उसका भी दान इसी एकादशाह श्राद्ध के दिन करना उचित है। इस दिन मरे हुए स्वजनको उद्देश्य बनाकर शय्या, गौ आदिका दान भी करना चाहिये। इतना ही नहीं उस प्रेतकी क्षुधा-शान्तिके लिये बहुत से ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिये।
हे विनतापुत्र गरुड! अब मैं तृतीय षोडशी (उत्तम षोडशी)-श्राद्ध का वर्णन कर रहा हूँ, उसे सुनो। प्रत्येक बारह मास के बारह पिण्ड, ऊन मासिक (आय) त्रिपाक्षिक, ऊन पाण्मासिक एवं उनाब्दिक-इन्हें तृतीय अथवा उत्तमषोडशी भी कहा जाता है। बारहवें दिन, तीन पक्ष में, छः महीने में अथवा वर्षके अंत में सपिण्डीकरण करना चाहिये। जिस मृतक के निमित्त इन षोडश श्राद्ध को सम्पन्न करके ब्राह्मणों को दान नहीं दिया जाता है, उस प्रेतके लिये अन्य सौ श्राद्ध करनेपर भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती। हे खगेश! मृतक व्यक्तिके एकादशाह अथवा द्वादशी तिथि में आद्य श्राद्ध करनेका विधान माना गया है। प्रतिमासका श्राद्ध मास के आद्यतिथि में मृत-तिथि पर होना चाहिये। ऊन श्राद्ध मास, छठे मास और वर्षमें एक, दो अथवा तीन दिन कम रहनेपर करना चाहिये। सपिण्डीकरण वर्ष पूर्ण होनेके बाद अथवा छः महीने बाद करना चाहिये।
मनुष्य के कुलधर्म असंख्य है, उनकी आयु भी क्षरणशील है और शरीर अस्थिर है। अतः बारहवें दिन सपिण्डीकरण करना उत्तम है। हे पक्षिराज! सपिण्डीकरण श्राद्ध के सम्पादकीय विधि भी मुझसे सुनो। हे काश्यप! एकोद्दिष्ट विधानके अनुसार यह कार्य करना चाहिये। हे पक्षीन् ! अब उस जीव का किसके साथ मेलन होता है तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर सुनो। गन्ध और जलसे परिपूर्ण चार पात्रों की व्यवस्था करके एक पात्र प्रेतके निमित्त और शेष तीन पात्र पितृगणों के लिये निश्चित करना चाहिये। तदनन्तर उन तीन पात्रों में प्रेतपात्रके जलका सेचन करे चार पिण्ड बनाये और प्रेत-पिण्ड का उन तीन पिण्डोंमें मेलन कर दे। तबसे वह प्रेत पितृ के रूप में हो जाता है। हे खगेश्वर ! उस प्रेतमें पितृत्वभावके आ जानेके बाद उस प्रेत तथा अन्य उसके पितृ-पितामह आदि पितरोंका समस्त श्राद्ध तृतीय श्राद्ध की सामान्य विधिके अनुसार ही करना चाहिये।
जिस मृतकका वार्षिक श्राद्ध से पूर्व सपिण्डीकरण हो जाता है, उसके लिये भी वर्षभर मासिक श्राद्ध और जलकुम्भ दान करना चाहिये। धनका बँटवारा हो जाने पर भी नव श्राद्ध, सपिण्डन श्राद्ध और षोडश श्राद्ध करनेका अधिकार एक ही व्यक्तिको है।
हे कश्यप पुत्र ! अब मैं तुम्हें श्राद्ध करने का काल बताऊँगा। उसको सुनो।
हे पक्षिन्! मृत्युके दिन मृतस्थानपर पहला श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद दूसरा श्राद्ध मार्ग में उस स्थानपर करना चाहिये जहाँपर शव रखा गया था तदनन्तर तीसरा श्राद्ध अस्थिसंचयनके स्थानपर होता है। इसके बाद पाँचवें, सातवें, आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें दिन श्राद्ध होता है। इसलिये इन्हें श्राद्ध कहा जाता है। ये नव श्राद्ध तृतीया षोडशी कहे जाते हैं। इनको एकोद्दिष्ट विधानके अनुसार ही करना चाहिये। पहले, तीसरे, पाँचवें, सातवें, नवें और ग्यारहवें दिन होने वाले श्राद्ध को श्राद्ध कहा जाता है। दिन की संख्या छः ही है पर छ: दिन में ही नव श्राद्ध हो जाते हैं।
हे पक्षिराज! अब तुम मुझसे एकोदिष्ट श्राद्ध के विषय में भी सुनो। जिसको वर्षपर्यन्त करना चाहिये।
सपिण्डीकरणके बादमें किये जानेवाले षोडश श्राद्ध का सम्पादन एकोद्दिष्ट विधानके अनुसार ही होना चाहिये, किंतु पार्वण-श्राद्ध(अमावस्या के दिन) में उक्त नियमका प्रयोग नहीं होता है। जिस प्रकारसे प्रत्येक वर्ष में होने वाला प्रत्यब्द श्राद्ध' होता हे। उसी प्रकार उन पोडश श्राद्ध को भी करना चाहिये। एकादशी और द्वादशी में जो श्राद्ध किया जाता है उन दिनों में स्वयं प्रेत भी भोजन करता है। अतः स्त्री और पुरुष के लिये जो पिंडदान इन दिनोंमें दिया जाय उसको अमुक प्रेतके निमित्त दिया जा रहा है, ऐसा कहकर पिंडदान देना चाहिये। सपिण्डीकरण श्राद्ध होनेके पश्चात् प्रेत शब्द का प्रयोग नहीं होता है। एक वर्ष तक घर के बाहर प्रतिदिन दीपक जलाना चाहिये। अन्न, दीप, जल, वस्त्र और अन्य जो कुछ भी वस्तुएँ दानमें दी जाती है, वे सभी सपिण्डीकरण तक प्रेत शब्द का सम्बोधन संकल्पित होनेपर ही प्रेतको तृप्ति प्रदान करती हैं।
हे वैनतेय! संक्षिप्त रूपमें मैंने वार्षिक कृत्य कह दिया।
क्रमश: अगले भाग में