मृत्यु के बाद कि गति वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-मुने! इस समय मनुष्य की मृत्यु के विषय में कुछ निवेदन करूंगा शरीरमें जब वातका वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणासे ऊष्मा अर्थात् पित्तका भी प्रकोप हो जाता है। वह पित्त सारे शरीरको रोककर सम्पूर्ण दोषोंको आवृत कर लेता है तथा प्राणियों के स्थान और मर्म का उच्छेद कर डालता है फिर शीतसे वायुका प्रकोप होता है और वायु अपने निकलनेके लिये छिद्र ढूँढ़ने लगती है।
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दो नेत्र, दो कान, दो नासिक और एक ऊपरका ब्रह्मरन्ध्र-ये सात छिद्र हैं तथा आठवाँ छिद्र मुख है। शुभ कार्य करनेवाले मनुष्यों के प्राण प्रायः इन्हीं सात मार्गोंसे निकलते हैं। नीचे भी दो छिद्र हैं-गुदा और उपस्थ(लिंग)। पापियोंके प्राण इन्हीं छिद्रोंसे बाहर होते हैं, परंतु योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके निकलते हैं और वह जीव इच्छानुसार लोकों में जाता है। अन्तकाल आनेपर प्राण अपानमें स्थित होता है। तमके द्वारा ज्ञान आवृत हो जाता है, मर्मस्थान आच्छादित हो जाते हैं उस समय जीव वायुके द्वारा बाधित हो नाभिस्थानसे विचलित कर दिया जाता है; अत: वह आठ अङ्गोंवाली प्राणोंकी वृत्तियोंको लेकर शरीरसे बाहर हो जाता है।
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देहसे निकलते. अन्यत्र जन्म लेते अथवा नाना प्रकारकी योनियोंमें प्रवेश करते समय जीवको सिद्ध पुरुष और देवता ही अपनी दिव्य दृष्टि से देखते हैं। मृत्यु के बाद जीव तुरंत ही आतिवाहिक(प्रेत) शरीर धारण करता है। उसके त्यागे हुए शरीरसे आकाश, वायु और तेज-ये ऊपरके तीन तत्वों में मिल जाते हैं तथा जल और पृथ्वी के अंश नीचेके तत्वों से एक भूत हो जाते हैं यही पुरुषका 'पञ्चत्वको प्राप्त होना' माना गया है। मरे हुए जीवको यमदूत शीघ्र ही आतिवाहिक (प्रेत) शरीरमें पहुँचाते हैं। यमलोक का मार्ग अत्यन्त भयंकर और छियासी हजार योजन लंबा है। उस पर ले जाया जानेवाला जीव अपने बन्धु-बान्धवोंके दिये हुए अन्न-जलका उपभोग करता है। यमराज से मिलनेके पश्चात् उनके आदेशसे चित्रगुप्त जिन भयंकर नरक को बतलाते हैं, उन्हें वह जीव प्राप्त होता है। यदि वह धर्मात्मा होता है, तो उत्तम मार्ग से स्वर्ग लोक को जाता है।अब पापी जीव जिन नरकों और उनकी यातनाओंका उपभोग करते हैं, उनका वर्णन करता हूँ। इस पृथ्वी के नीचे नरक की अट्ठाईस ही श्रेणियाँ हैं। सातवें तलके अन्तमें घोर अन्धकारके भीतर उनकी स्थिति है।
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नरक की पहली कोटि 'घोरा के नाम से प्रसिद्ध है। उसके नीचे 'सुघोरा की स्थिति है तीसरी 'अतिघोरा', चौथी 'महा घोरा' पाँचवीं 'घोररूपा' नाम की कोटि है। छठ्ठी का नाम 'तरलतारा' और सातवींका 'भयानका' है। आठवीं 'भयोत्कटा', नवीं 'कालरात्रि' दसवीं 'महाचण्डी', ग्यारहवीं 'चण्डा', बारहवीं 'कोलाहला', तेरहवीं 'प्रचण्डा', चौदहवीं 'पद्या और पंद्रहवीं 'नरकनायिका' है। सोलहवीं पद्मावती', सत्रहवीं 'भीषणा', अठारहवीं 'भीमा', उन्नी सर्वं 'कालिका', बीसवीं 'विकराला', इक्कीसवीं 'महामना', बाईसवीं 'त्रिकोणा' और तेईसवीं 'पञ्चकोणिका' है। चौबीसवीं 'सुदीर्घा', पच्चीसवीं"वर्तुल', छब्बीसवीं 'सप्तभूमा', सत्ताईस "भूमिका' और अट्ठाईसवीं 'दीप्तमान' है। इस प्रकार ये अट्ठाईस कोटियाँ पापियोंको दुःख देनेवाली हैं
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नरक की अट्ठाईस कोटियोंके पाँच-पाँच नायक हैं (तथा पाँच उनके भी नायक हैं)। वे 'रौरव' आदिके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन सबकी संख्या एक सौ पैंतालीस है-तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, लोहभार, कामसूत्र नरक, महानरक, संजीवन, महावीचि, तपन, सम्प्रतापन, संघात, काकोल, कुड्मल, पूत मृत्यु, लौह शङ्कु, ऋजीष, प्रधान, शाल्मली वृक्ष और वैतरणी नदी आदि सभी नरकोंको 'कोटि-नायक' समझना चाहिये। ये बड़े भयंकर दिखायी देते हैं। पापी पुरुष इनमेंसे एक-एकमें तथा अनेकमें भी डाले जाते हैं। यातना देनेवाले यमदूतोंमें किसीका मुख बिलाव के समान होता है तो किसीका उल्लूके समान, कोई गीदड़के समान मुखवाले हैं तो कोई गृध्र आदिके समान। वे मनुष्य को तेल के कड़ाहे में डालकर उसके नीचे आग जला देते हैं। किन्हींको भाड़में, किन्हींको ताँबे या तपाये हुए लोहे के बर्तनों में तथा बहुतोंको आगकी चिनगारियोंमें डाल देते हैं। कितनोंको वे शूलीपर चढ़ा देते हैं। बहुत सारे पापियों को नरक में डालकर उनके टुकड़े टुकड़े किये जाते हैं। कितने ही कोड़ोंसे पीटे जाते हैं और कितनोंको तपाये हुए लोहे के गोले खिलाये जाते हैं। बहुत-से यमदूत उनको धूलि, विष्ठा, रक्त और कफ आदि भोजन कराते तथा तपायी हुई मदिरा पिलाते हैं बहुत-से जीवों को वे आरेसे चीर डालते हैं कुछ लोगोंको कोल्हूमें पेरते हैं। कितनों को कौवे आदि नोच-नोच कर खाते हैं। किन्हीं-किन्हींके ऊपर गरम तेल छिड़का जाता है तथा कितने ही जीवों के मस्तक के अनेकों टुकड़े किये जाते हैं। उस समय पापी जीव 'अरे बाप रे' कहकर चिल्लाते हैं और हाहाकार मचाते हुए अपने पाप कर्मों की निन्दा करते हैं इस प्रकार बड़े-बड़े पातकोंके फलस्वरूप भयंकर एवं निन्दित नरकोंका कष्ट भोगकर कर्म क्षीण होनेके पश्चात् वे महापापी जीव पुनः इस मर्त्यलोकमें जन्म लेते हैं॥
ब्रह्महत्यारा पुरुष मृग, कुत्ते, सूअर और ऊँटोंकी योनिमें जाता है। मदिरा पीनेवाला गदहे, चांडाल तथा म्लेच्छों का जन्म पाता है। सोना चुरानेवाले कीड़े-मकोड़े और पतिंगे होते हैं तथा गुरुपत्नीसे गमन करनेवाला मनुष्य तृण एवं लताओंमें जन्म ग्रहण करता है। ब्रह्महत्यारा राजयक्ष्मा का रोगी होता है, शराबीके दांत काले हो जाते हैं. सोना चुराने वाले का नख खराब होता है तथा गुरुपत्नीगामीके चमड़े दूषित होते हैं। (अर्थात् वह कोढ़ी हो जाता है)। जो जिस पापसे सम्पर्क रखता है, वह उसीका कोई चिह्न लेकर जन्म ग्रहण करता है। अन्न चुरानेवाला मायावी होता है। वाणी (कविता आदि)-की चोरी करनेवाला गूंगा होता है। धान्यका अपहरण करनेवाला जब जन्म ग्रहण करता है, तब उसका कोई अङ्ग अधिक होता है, चुगलखोर की नासिका से बदबू आती है, तेल चुरानेवाला पुरुष तेल पीनेवाला कीड़ा होता है तथा जो इधरकी बातें उधर लगाया करता है, उसके मुँह से दुर्गन्ध आती है। दूसरोंकी स्त्री तथा ब्राह्मण के धनका अपहरण करनेवाला पुरुष निर्जन वनमें ब्रह्मराक्षस होता है। रत्न चुरानेवाला नीच जातिमें जन्म लेता है। उत्तम गन्धकी चोरी करनेवाला छछूंदर होता है। शाक-पात चुरानेवाला मुर्गा तथा अनाज की चोरी करनेवाला चूहा होता है। पशुका अपहरण करनेवाला बकरा, दूध चुरानेवाला कौवा, सवारीकी चोरी करनेवाला ऊँट तथा फल चुराकर खानेवाला बन्दर होता है। शहद की चोरी करनेवाला डॉस, फल चुरानेवाला गृध्र तथा घर का सामान हड़प लेने वाला गृहकाक का होता है ।वस्त्र हड़पनेवाला कोढ़ी, चोरी-चोरी रसका स्वाद लेनेवाला कुत्ता और नमक चुरानेवाला झींगुर होता है।
यह 'आधिदैविक ताप' का वर्णन किया गया है। शस्त्र आदिसे कष्टकी प्राप्ति होना आधिभौतिक ताप' है तथा ग्रह, अग्नि और देवता आदि से जो कष्ट होता है, वह 'आधिदैविक ताप' बतलाया गया है। अग्निदेव कहते हैं-वशिष्ठ जी! अब मैं आत्यन्तिक प्रलय का वर्णन करूंगा। जब जगत्के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक संतापोंको जानकर मनुष्य को अपने से भी वैराग्य हो जाता है, उस समय उसे ज्ञान होता है और ज्ञान से इस सृष्टिका आत्यन्तिक प्रलय होता है (यही जीवात्माका मोक्ष है) आध्यात्मिक संगठन 'शारीरिक' और 'मानसिक' भेदसे दो प्रकारका होता है। ब्रह्मन्! शारीरिक तापके भी अनेकों भेद हैं, उन्हें श्रवण कीजिए । जीव भोगदेहका परित्याग करके अपने कर्मों के अनुसार पुनः गर्भमें आता है। वसिष्ठजी! एक 'आतिवाहिक (प्रेत) संज्ञक शरीर होता है, वह केवल मनुष्य को मृत्यु काल उपस्थित होनेपर प्राप्त होता है। विप्रवर! यमराज के दूत मनुष्य के उस आतिवाहिक (प्रेत) शरीर को यमलोक के मार्गसे ले जाते हैं। मुझे! दूसरे प्राणियों को न तो आतिवाहिक (प्रेत) शरीर मिलता है और न वे यमलोक के मार्गसे ही ले जाये जाते हैं तदनन्तर यमलोक में गया हुआ जीव कभी स्वर्गमें और कभी नरकमें जाता है। जैसे रहट नामक यन्त्रमें लगे हुए घड़े कभी पानीमें डूबते हैं और कभी ऊपर आते हैं, उसी तरह जीवको कभी स्वर्ग और कभी नरकमें चक्कर लगाना पड़ता है। ब्रह्मन्! यह लोक कर्मभूमि है और परलोक फलभूमि । यमराज जीवको उसके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों तथा नरकोंमें डाला करते हैं। यमराज ही जीवोंद्वारा नरकोंको परिपूर्ण बनाये रखते हैं। यमराज को ही इनका नियामक समझना चाहिये। यमदूत जब मनुष्य को यमराज के पास ले जाते हैं, तो वो उसकी ओर देखते हैं (उसके कर्मों पर विचार करते हैं-)यदि कोई धर्मात्मा होता है तो उसकी पूजा करते हैं और यदि पापी होता है तो अपने घर पर उसे दण्ड देते हैं चित्रगुप्त उसके शुभ और अशुभ कर्मों का विवेचन करते हैं।
धर्म के ज्ञाता वशिष्ठ जी! जब तक बन्धु-बान्धवों का अशौच निवृत्त नहीं होता, तबतक जीव आतिवाहिक (प्रेत) शरीरमें ही रहकर दिये हुए पिण्डों को भोजन के रूपमें अपने साथ ले जाता है।
तत्पश्चात् प्रेतलोकमें पहुँचकर प्रेतदेह (आतिवाहिक शरीर)-का त्याग करता है और दूसरा शरीर (भोगदेह) पाकर वहाँ भूख-प्यास से युक्त हो निवास करता है। उस समय उसे वह भोजन के लिये मिलता है, जो श्राद्ध के रूप में उसके निमित्त कच्चा अन्न दिया गया होता है।
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प्रेतके निमित्त पिंडदान किये बिना उसको आतिवाहिक (प्रेत) शरीरसे छुटकारा नहीं मिलता,जिनके बंधु-बान्धव उसकेपीछे कोई क्रिया नहीं करता पींडदान नहीं करता वो आतिवाहिक शरीर में ही रहता है । उसके बंधु- बांधवों अगर एक साल के अंदर कोई प्रसंग करते, उत्सव मनाते,और घर में मिष्ठान्न पकाकर खाते है तो यमदूत उसे और ज्यादा दंड देते है मिष्ठान्न की जगह उसको विष्ठा खिलाते हैं । उस जीव को बडा भारी दुःख होता है और वो अपने बंधु- बांधवों के प्रति रुष्ट होता हुआ उनको दुःख देने के लिए तत्पर होता है ।और वो अगले जन्म की राह देखता है। वह उसी शरीरमें रहकर केवल पिण्डोंका भोजन करता है। सपिण्डीकरण श्राद्ध करनेपर एक वर्षके पश्चात् वह प्रेतदेहको छोड़कर भोगदेहको प्राप्त होता है।
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भोगदेह' दो प्रकारके बताये गये हैं शुभ और अशुभ। भोग देह के द्वारा कर्म जनित बन्धनोंको भोगनेके पश्चात् जीव मर्त्यलोक में गिरा दिया जाता है। उस समय उसके त्यागे हुए भोगदेह को निशाचर खा जाते है | ब्रह्मन् ! यदि जीव भोगदेहके द्वारा पहले पुण्यके फलस्वरूप स्वर्गका सुख भोग लेता है और पाप भोगना शेष रह जाता है तो वह पापियोंके अनुरूप दूसरा भोगशरीर धारण करता है। परंतु जो पहले पापका फल भोगकर पीछे स्वर्गका सुख भोगता है, वह भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे भ्रष्ट होकर पवित्र आचार-विचारवाले धनवान के घरमें जन्म लेता है। वसिष्ठजी! यदि जीव पुण्यके रहते हुए पहले पाप भोगता है तो उसका भोग समाप्त होनेपर वह पुण्यभोगके लिये उत्तम (देवोचित) शरीर धारण करता है। जब कर्म का भोग थोड़ा-सा ही शेष रह जाता है तो जीवको नरकसे भी छुटकारा मिल जाता है। नरकसे निकला हुआ जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनिमें ही जन्म लेता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इस प्रकार यह संसार तीन प्रकारके दुःखोंसे भरा हुआ है मनुष्य को चाहिये कि ज्ञानयोग से, कठोर व्रत से, दान आदि पुण्योंसे तथा विष्णु की पूजा आदि से इस दुःखमय संसार का निवारण करे।