हे वैनतेय! इस संसार में पुत्रहीन व्यक्ति की गति नहीं है, उसको स्वर्ग प्राप्त नहीं होता है। अत: शास्त्रानुसार यथायोग्य उपायसे पुत्र उत्पन्न करना ही चाहिये। यदि मनुष्यको मोक्ष नहीं मिलता है तो पुत्र नरकसे उसका उद्धार कर देता है। पुत्र और पौत्रको मरे हुए प्राणीको कन्धा देना चाहिये तथा उसका यथाविधान अग्निदाह करना चाहिये। शवके नीचे पृथ्वीपर तिलके सहित कुश बिछानेसे शव की आधारभूत भूमि उस ऋतुमती नारीके समान हो जाती है, जो प्रसव की योग्यता रखती है। मृतकके मुख में पञ्चरत्न डालना बीजवपनके समान है, जिससे आगे जीव की शुभगतिका निश्चय होता है। जैसे पुष्प (ऋतुकालमें स्त्रियोंका रजोदर्शन) न होनेपर गर्भधारण सम्भव नहीं है, वैसे ही शवभूमि भी तिल-कुश आदिके बिना जीवकी शुभ योनिमें कारण नहीं बन पाती। इसलिए श्रद्धापूर्वक तिल, कुश, पञ्चरत्न आदिका यथाविधान विनियोग आवश्यक है।
गोबर से भूमि को सबसे पहले लीपना चाहिये, तदनन्तर उसके ऊपर तिल और कुश बिछाना चाहिये उसके बाद मृत व्यक्ति को भूमि पर कुशासन के ऊपर सुला देना चाहिये। ऐसा करनेसे वह प्राणी अपने समस्त पापों को जला कर पाप मुक्त हो जाता है। शवके नीचे बिछाये गये कुशसमूह निश्चित ही मृत्युग्रस्त प्राणीको स्वर्ग ले जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। जहाँ पृथ्वी पर गोमयसे लेप करनेपर वह शुद्ध होती है। गोबर के बिना लिपी हुई भूमिपर सुलाये गये मरणासन्न व्यक्तिमें यक्ष, पिशाच एवं राक्षस-कोटिके क्रूरकर्मी दुष्ट लोग प्रविष्ट हो जाते हैं। मरणासन्नकी मुक्तिके लिये उसे जलसे बनाये गये मण्डलवाली भूमिपर ही सुलाना चाहिये, मण्डलविहीन भूमिपर प्राण-त्याग करनेपर वह चाहे बालक हो, चाहे वृद्ध हो और चाहे जवान हो, उसको अन्य योनि नहीं प्राप्त होती है। हे ताक्ष्य! उसकी जीवात्मा वायुके साथ भटकती रहती है। उस प्रकारकी वायुभूत जीवात्माके लिये न तो श्राद्ध का विधान है और न तो जल तर्पण की क्रिया ही बतायी गयी है।
हे गरुड! तिल मेरे पसीनेसे उत्पन्न हुए हैं। अतः तिल बहुत ही पवित्र हैं। तिल का प्रयोग करनेपर असुर, दानव और दैत्य भाग जाते हैं। तिल श्वेत, कृष्ण और गोमूत्र वर्ण के समान होते हैं। एक ही तिल का दान स्वर्णके बत्तीस सेर तिल के दान के समान है। तर्पण, दान एवं होममें दिया गया तिलका दान अक्षय होता है। कुश मेरे शरीर के रोम से उत्पन्न हुए हैं और तिलकी उत्पत्ति मेरे पसीनेसे हुई है इसीलिये देवताओं की तृप्ति के लिये मुख्यरूपसे कुशकी और पितरोंकी तृप्तिके लिये तिल की आवश्यकता होती है। देवताओं और पितरोंकी तृप्ति विश्वके लिये उपजीव्य (रक्षक) होनेके कारण विश्वकी तृप्तिमें हेतु है। अत: अपसव्य आदि श्राद्ध की जो विधियाँ बतायी गयी हैं, उन्हीं विधियोंके अनुसार मनुष्य को ब्रह्मा, देवदेवेश्वर तथा पितृ जनों को संतृप्त करना चाहिये। अपसव्य आदि होकर तिलका उपयोग करनेसे ब्रह्मा, पितर और देवेश्वर तृप्त होते हैं। अपसव्य होकर कर्म करने से पितरों की संतुष्टि होती है।
हे पक्षिन् ! जब मृत्यु आ जाती है तो उसके कुछ समय पूर्व दैवयोगसे कोई रोग प्राणी के शरीर में उत्पन्न हो जाता है। इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं और बल, ओज तथा वेग शिथिल हो जाता है। हे खग! प्राणियों को करोड़ों बिच्छुओंके एक साथ काटनेका जो अनुभव होता है, उससे मृत्यु जनित पीड़ाका अनुमान करना चाहिये। उसके बाद ही चेतना समाप्त हो जाती है, जड़ता आ जाती है। तदनन्तर यमदूत उसके समीप आकर खड़े हो जाते हैं और उसके प्राणोंको बलात् अपनी ओर खींचना शुरू कर देते हैं उस समय प्राण कण्ठमें आ जाते हैं। मृत्यु के पूर्व मृतकका रूप बीभत्स हो उठता है। वह फेन उगलने लगता है। उसका मुँह लार से भर जाता है। उसके बाद शरीरके भीतर विद्यमान रहनेवाला वह अङ्गुष्ठ-परिमाण का पुरुष हाहाकार करता हुआ तथा अपने घरको देखता हुआ यमदूतोंके द्वारा यमलोक ले जाया जाता है।