loader-missing
Language:

03 / Oct / 2022


मरण के बाद कि क्रियाओं का महत्व क्या है भाग -2

हे वैनतेय! इस संसार में पुत्रहीन व्यक्ति की गति नहीं है, उसको स्वर्ग प्राप्त नहीं होता है। अत: शास्त्रानुसार यथायोग्य उपायसे पुत्र उत्पन्न करना ही चाहिये। यदि मनुष्यको मोक्ष नहीं मिलता है तो पुत्र नरकसे उसका उद्धार कर देता है। पुत्र और पौत्रको मरे हुए प्राणीको कन्धा देना चाहिये तथा उसका यथाविधान अग्निदाह करना चाहिये। शवके नीचे पृथ्वीपर तिलके सहित कुश बिछानेसे शव की आधारभूत भूमि उस ऋतुमती नारीके समान हो जाती है, जो प्रसव की योग्यता रखती है। मृतकके मुख में पञ्चरत्न डालना बीजवपनके समान है, जिससे आगे जीव की शुभगतिका निश्चय होता है। जैसे पुष्प (ऋतुकालमें स्त्रियोंका रजोदर्शन) न होनेपर गर्भधारण सम्भव नहीं है, वैसे ही शवभूमि भी तिल-कुश आदिके बिना जीवकी शुभ योनिमें कारण नहीं बन पाती। इसलिए श्रद्धापूर्वक तिल, कुश, पञ्चरत्न आदिका यथाविधान विनियोग आवश्यक है।


गोबर से भूमि को सबसे पहले लीपना चाहिये, तदनन्तर उसके ऊपर तिल और कुश बिछाना चाहिये उसके बाद मृत व्यक्ति को भूमि पर कुशासन के ऊपर सुला देना चाहिये। ऐसा करनेसे वह प्राणी अपने समस्त पापों को जला कर पाप मुक्त हो जाता है। शवके नीचे बिछाये गये कुशसमूह निश्चित ही मृत्युग्रस्त प्राणीको स्वर्ग ले जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। जहाँ पृथ्वी पर गोमयसे लेप करनेपर वह शुद्ध होती है। गोबर के बिना लिपी हुई भूमिपर सुलाये गये मरणासन्न व्यक्तिमें यक्ष, पिशाच एवं राक्षस-कोटिके क्रूरकर्मी दुष्ट लोग प्रविष्ट हो जाते हैं। मरणासन्नकी मुक्तिके लिये उसे जलसे बनाये गये मण्डलवाली भूमिपर ही सुलाना चाहिये, मण्डलविहीन भूमिपर प्राण-त्याग करनेपर वह चाहे बालक हो, चाहे वृद्ध हो और चाहे जवान हो, उसको अन्य योनि नहीं प्राप्त होती है। हे ताक्ष्य! उसकी जीवात्मा वायुके साथ भटकती रहती है। उस प्रकारकी वायुभूत जीवात्माके लिये न तो श्राद्ध का विधान है और न तो जल तर्पण की क्रिया ही बतायी गयी है।


हे गरुड! तिल मेरे पसीनेसे उत्पन्न हुए हैं। अतः तिल बहुत ही पवित्र हैं। तिल का प्रयोग करनेपर असुर, दानव और दैत्य भाग जाते हैं। तिल श्वेत, कृष्ण और गोमूत्र वर्ण के समान होते हैं। एक ही तिल का दान स्वर्णके बत्तीस सेर तिल के दान के समान है। तर्पण, दान एवं होममें दिया गया तिलका दान अक्षय होता है। कुश मेरे शरीर के रोम से उत्पन्न हुए हैं और तिलकी उत्पत्ति मेरे पसीनेसे हुई है इसीलिये देवताओं की तृप्ति के लिये मुख्यरूपसे कुशकी और पितरोंकी तृप्तिके लिये तिल की आवश्यकता होती है। देवताओं और पितरोंकी तृप्ति विश्वके लिये उपजीव्य (रक्षक) होनेके कारण विश्वकी तृप्तिमें हेतु है। अत: अपसव्य आदि श्राद्ध की जो विधियाँ बतायी गयी हैं, उन्हीं विधियोंके अनुसार मनुष्य को ब्रह्मा, देवदेवेश्वर तथा पितृ जनों को संतृप्त करना चाहिये। अपसव्य आदि होकर तिलका उपयोग करनेसे ब्रह्मा, पितर और देवेश्वर तृप्त होते हैं। अपसव्य होकर कर्म करने से पितरों की संतुष्टि होती है।





कुशके मूलभागमें ब्रह्मा, मध्यभागमें विष्णु तथा अग्रभागमें शिव को जानना चाहिये; ये तीनों देव कुश में प्रतिष्ठित माने गये हैं। हे पक्षिराज! ब्राह्मण, मन्त्र, कुश, अग्नि और तुलसी-ये बार-बार समर्पित होनेपर भी पर्युषित नहीं माने जाते, कभी निर्माल्य अर्थात् बासी नहीं होते। इनका पूजा में बारंबार प्रयोग किया जा सकता है। हे खगेन्द्र। तुलसी, ब्राह्मण, गौ, विष्णु तथा एकादशी व्रत-ये पाँचों संसार सागर में डूबते हुए लोगोंको नौकाके समान पार कराते हैं ।हे पक्षी श्रेष्ठ! विष्णु, एकादशी व्रत, गीता, तुलसी, ब्राह्मण और गौ-ये छः इस असार-संसारमें लोगोंको मुक्ति प्रदान करनेके साधन हैं, यह षट्पदी कहलाती है ।





जैसे तिल की पवित्रता अतुलनीय होती है, उसी प्रकार कुश और तुलसी भी अत्यन्त पवित्र होते हैं ये तीनों पदार्थ मरणासन्न व्यक्तिको दुर्गतिसे उबार लेते हैं दोनों हाथोंसे कुश उखाड़ना चाहिये और उसे पृथ्वी पर रखकर जलसे प्रोक्षित करना चाहिये तथा मृत्युकालमें मरणासन्नके दोनों हाथोंमें रखना चाहिये। जिसके हाथोंमें कुशाएँ हैं और जो कुशसे परिवेष्टित कर दिया जाता है, वह मन्त्रहीन होनेपर (उसकी समन्त्रक क्रियाएँ न हो पायी हों, तब) भी विष्णु लोक को प्राप्त करता है। लवण (नमक) और उसका रस दिव्य (उत्तम लोकका प्रापक) है, वह प्राणियों के समस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाला है। लवण के बिना अन्न-रस उत्कट अर्थात् न अभिव्यक्त होते हैं और न सुस्वादु होते हैं। इसीलिये लवण-रस पितरोंको प्रिय होता है और स्वर्गको प्रदान करनेवाला है। यह लवण-रस भगवान विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुआ है। इस बातको जाननेवाले योगीजन, लवणके साथ दान करनेको कहते हैं। इस पृथ्वी पर यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री तथा शूद्र वर्ण के आतुर व्यक्तिके प्राण न निकलते हों तो उसके लिये स्वर्गका द्वार खोलनेके लिये लवण का दान देना चाहिये।

हे पक्षीन्द्र! अब मृत्युके स्वरूपको विस्तारपूर्वक सुनें। मृत्यु ही काल है, उसका समय आ जानेपर जीवात्मासे प्राण और देहका वियोग हो जाता है। मृत्यु अपने समयपर आती है। मृत्युकष्टके प्रभावसे प्राणी अपने किये कर्मो को एकदम भूल जाता है। हे गरुड़। जिस प्रकार वायु मेघमण्डलोंको इधर-उधर खींचता है, उसी प्रकार प्राणी काल के वश में रहता है।


हे पक्षिन् ! जब मृत्यु आ जाती है तो उसके कुछ समय पूर्व दैवयोगसे कोई रोग प्राणी के शरीर में उत्पन्न हो जाता है। इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं और बल, ओज तथा वेग शिथिल हो जाता है। हे खग! प्राणियों को करोड़ों बिच्छुओंके एक साथ काटनेका जो अनुभव होता है, उससे मृत्यु जनित पीड़ाका अनुमान करना चाहिये। उसके बाद ही चेतना समाप्त हो जाती है, जड़ता आ जाती है। तदनन्तर यमदूत उसके समीप आकर खड़े हो जाते हैं और उसके प्राणोंको बलात् अपनी ओर खींचना शुरू कर देते हैं उस समय प्राण कण्ठमें आ जाते हैं। मृत्यु के पूर्व मृतकका रूप बीभत्स हो उठता है। वह फेन उगलने लगता है। उसका मुँह लार से भर जाता है। उसके बाद शरीरके भीतर विद्यमान रहनेवाला वह अङ्गुष्ठ-परिमाण का पुरुष हाहाकार करता हुआ तथा अपने घरको देखता हुआ यमदूतोंके द्वारा यमलोक ले जाया जाता है।

जो लोग झूठ नहीं बोलते, जो प्रीतिका भेदन नहीं करते, आस्तिक और श्रद्धावान् हैं, उन्हें सुखपूर्वक मृत्यु प्राप्त होती है। जो काम, ईर्ष्या और द्वेष के कारण स्वधर्मका परित्याग न करे, सदाचारी और सौम्य हो, वे सब निश्चित ही सुखपूर्वक मरते हैं।





जो लोग मोह और ज्ञान का उपदेश देते हैं, वे मृत्यु के समय महान्धकारमें फँस जाते हैं। जो झूठी गवाही देनेवाले, असत्यभाषी, विश्वासघाती और वेदनिन्दक हैं, वे मूच्छ्छारूपी मृत्युको प्राप्त करते हैं। उनको ले जानेके लिये लाठी एवं मुद्रा से युक्त दुर्गन्धसे भरपूर एवं भयभीत करनेवाले दुरात्मा यमदूत आते हैं। उन्हें देखकर प्राणी के शरीर में भयवश कम्पन होने लगता है। उस समय वह अपनी रक्षाके लिये अनवरत माता-पिता और पुत्र को याद कर करुण-क्रन्दन करता है। उस क्षण प्रयास करनेपर भी ऐसे जीवके कण्ठसे एक शब्द भी स्पष्ट नहीं निकलता। भयवश प्राणीकी आँखें नाचने लगती है उसकी साँस बढ़ जाती है और मुँह सूखने लगता है। उसके बाद वेदनासे आविष्ट होकर वह अपने शरीरका परित्याग करता है और उसके बाद ही वह सबके लिये अस्पृश्य एवं घृणा योग्य हो जाता है।पापियोंका जीव अधोमार्गसे निकलता है,और पुण्यात्मा के जीव नेत्रों, नासिका और ब्रम्हरन्द्र से निकलते हैं। 




क्रमश: अगले भाग में