दशाक्षरी विद्या तथा काली-कवचका वर्णन
नारद जी ने कहा-सर्वज्ञ नाथ! अब मैं आपके मुखसे काली-कवच तथा उस दशाक्षरी विद्या को सुनना चाहता हूँ।
श्री नारायण बोले-नारद! मैं दशाक्षरी महाविद्या तथा तीनों लोकों में दुर्लभ उस गोपनीय कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो।
🌺 'ॐ ह्रीं (रीम्) श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' 🌺
यही दशाक्षरी विद्या है। इसे पुष्कर तीर्थ में सूर्य-ग्रहण के अवसर पर दुर्वासा ने राजा को दिया था उस समय राजाने दस लाख जप करें मंत्र सिद्ध किया और इस उत्तम कवचके पाँच लाख जप से ही वे सिद्ध कवच हो गये तत्पश्चात् वे अयोध्या लौट आये और इसी कवचकी कृपासे उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया।
नारद जी ने कहा-प्रभो! जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, उस दशाक्षरी विद्याको तो मैंने सुन लिया। अब मैं कवच सुनना चाहता हूँ, वह मुझसे वर्णन कीजिये।
श्री नारायण बोले-विप्रेन्द्र! पूर्वकालमें त्रिपुर-वधके भयंकर अवसरपर शिवकी विजयके लिये नारायण ने कृपा करके शिवको जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। मुने! वह कवच अत्यन्त गोपनीयोंसे भी गोपनीय, तत्व स्वरूप तथा सम्पूर्ण मंत्र समुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है उसीको पूर्वकाल में शिवजी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था। 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' मेरे मस्तककी रक्षा करे। 'क्लीं' कपालकी तथा 'ह्रीं ह्रीं ह्रीं' नेत्रोंकी रक्षा करे। 'ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा' सदा मेरी नासिकाकी रक्षा करे। 'श्री कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा' सदा दांतों की रक्षा करे। ' ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा' मेरे दोनों ओठोंकी रक्षा करे। 'ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' सदा कण्ठकी रक्षा करे। 'ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा' सदा दोनों कानोंकी रक्षा करें | ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा' सदा मेरे कंधोंकी रक्षा करो।' ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा' सदा मेरे वक्ष:स्थलकी रक्षा करे। 'ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा' सदा मेरी नाभि की रक्षा करो। 'ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा' सदा मेरे पृष्ठभागकी रक्षा करे | 'रक्तबीज विनाशिन्यै स्वाहा' सदा हाथोंकी रक्षा करो 'ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिनी स्वाहा' सदा पैरोंकी रक्षा करो।' ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा' सदा मेरे सर्वाङ्गकी रक्षा करे। पूर्वमें 'महाकाली' और अग्नि कोण में 'रक्तदन्तिका' रक्षा करें दक्षिण में चामुण्डा रक्षा करें। नैऋत्य कोण में 'कालिका' रक्षा करें पश्चिममें 'श्यामा' रक्षा करें। वायव्य कोण में 'चण्डिका', उत्तरमें विकटास्या' और ईशान कोण में अट्टहासिनी रक्षा करें। ऊर्ध्वभागमें 'लोलजिह्वा' रक्षा करें। अधोभागमें सदा 'आद्यामाया' रक्षा करें। जल, स्थल और आन्तरिक्षमें सदा 'विश्वप्रसू' रक्षा करें। वत्स! यह कवच समस्त मन्त्र समूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचोंका सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है। इसे मैंने तुम्हें बतला दिया। इसी कवचकी कृपासे राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे। इसी कवचके प्रभावसे पृथ्वी पर मान्धाता सप्तद्वीप तो पृथ्वी के अधिपति हुए थे। इसीके बलसे प्रचेता और लोमश सिद्ध हुए थे तथा इसीके बलसे सौभरि और पिप्पलायन योगियोंमें श्रेष्ठ कहलाये। जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवचकी सोलहवीं कलाकी भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है। जो इस कवचको जाने बिना जगतजननी कालीका भजन करता है, उसके लिये एक करोड़ जप करनेपर भी यह मंत्र सिद्धि दायक नहीं होता।
🎆 परशुराम उवाच 🎆
नमः शंकरकान्तायै सरायै ते नमो नमः ।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः॥
नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत्कत्र्यै नमो नमः ।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः ॥
प्रसीद जगतां मातः सृष्टिसंहार कारिणि ।
त्वत् पादे शरणं यामि प्रतिज्ञा सार्थक कुरु
जगतां त्वयि मे विमुखायां च को मां रक्षितुमोश्वरः ।
त्वं प्रसत्रा भव शुभे मां भक्तं भक्तवत्सले।
युष्माभिः शिवलोके च मह्यं दत्तो वरः पुरा
तं वरं सफलं कर्तुं त्वमहंसि वरानने ॥
जामद्ग्न्य स्तयं श्रुत्वा प्रसन्नाभवदम्बिका ।
मा भैरित्येवमुक्त्वा तु तत्रैवान्तरधीयत॥
जामदगन्यस्तवं एतद् भृगुकृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च यःपठेत् ।
महाभयात् समुत्तीर्णः स भवेदवलीलया।
स पूजितश्च त्रैलोक्ये त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
ज्ञानिश्रष्ठौ भवेच्चैव वैरिपक्षविमर्दकः ॥