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25 / May / 2020


नर्मदा (रेवा) तीर्थ में पिण्ड दान का महत्व

मार्कंडेय जी बोले-राजन। पूर्वकाल की बात है, चंद्र वंश में पुरुरवा नामक विख्यात एक चक्रवर्ती राजा हुए थे। स्वर्गलोकका शासन करनेवाले इन्द्र की भांति समूची पृथ्वी का पालन करते थे । एक समय राजसभा में उन नृप श्रेष्ठ ने बड़े-बूढे बाह्मणो से पूछा- विप्रवर पापमोहित मनुष्य किस उपाय से यज्ञ आदि कर्मो बिना ही स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं और हो सकते हैं, यह बताएं


ब्राह्मणों ने कहा -महाराज | नर्मदा नदी सम्पूर्ण लोकोको पवित्र करने वाली हैं । वे सम्पूर्ण विश्व का पाप हरण करने समर्थ हैं। उन्हे स्वर्ग लोक से आप इस पृथ्वी पर उतारे । अपने मन को वश में रखने वाले उन ब्राह्मणों का यह वचन सुनकर राजा पुरूरवा ने कन्द मूल, फल, शाक और जलका आहार करके निर्मल अन्तःकरण से महादेव की आराधना की।

तब महादेव ने प्रसन्न होकर कहा- वत्स वर मांगो ।मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुसार वस्तु प्रदान करुगा


पुरुरवा बोले-महादेव ! आप समस्त लोकोके हितके लिये नर्मदा नदी को पृथ्वी पर उतारिये । आज लाख योजनका विशाल जम्बूद्वीप निराधार हो रहा है। न देवता तृप्त होते है, न पितर और न मनुष्य को ही तृप्ति हो रही है। महादेव ने कहा-राजन् ! तुम तो अयाप्य वस्तु की याचना करते हो। ऐसा वर तो देवताओंके लिए भी दुर्लभ है। नर्मदा को छोड़कर दूसरा जो कुछ भी वर मागो, में दूंगा।
पुरुरवा बोले-महादेव ! में प्राण जानेपर भी दूसरा वर नहीं माँगूँगा।


राजा का यह निश्चय जानकर तथा उग्र तपस्या द्वारा उनके किये हुए साधनको देखकर महादेवजी ने नर्मदा को आज्ञा दी-सुरेश्वरि । तुम पृथ्वी पर उतरो और पुरूरवा की तपस्याके फलसे मृत्युलोक के हित का साधन करो।


नर्मदा ने कहा-महेश्वर ! मैं बिना किसी आधार स्वर्गलोक से पृथ्वी पर कैसे जाऊंगी।
नर्मदा की यह बात सुनकर देवाधि देव महादेव ने आठ पर्वतों को बुलाया और उन सबसे पूछा--तुममे नर्मदा नदीको धारण करने में कौन समर्थ है "

तब विन्ध्यगिरिने कहा- भुरेश्र्वर ! आपके प्रसाद से मेरा पुत्र नर्मदा को धारण करने समर्थ है। उसका नाम पर्यडक है । तत्पश्चात महादेवजी की आज्ञा मिलने पर पर्यडक ने कहा महेश्वर ! आपके प्रसाद से में नर्मदा नदी को धारण करुगा । तदनन्तर नर्मदा देवी पर्यडक गिरि के शिखर पर स्थित होकर उतरी। उनकी जलराशिके वेगपूर्वक भ्रमण से पर्वत ,वन और काननों सहित समस्त पृथ्वी जलसे आप्लाचित हो उठी । समूर्ण जगत् अकालमें ही प्रलयकाल से ग्रस्त हो गया ।

तब सम्पूर्ण देवताओने मिलकर देव कन्या नर्मदा की स्तुति की और कहा-कल्याणी । तुम मर्यादा धारण करो। किसी नियत सीमामें स्थित रहो और इस प्रकार विश्व के लिये हितकारीणी बनो । देवताओं के इस प्रकार प्रार्थना करने पर महादेवजी की आज्ञा से नर्मदा देवीने पुनः अपने रूप को संकुचित कर लिया । अब वे संवृत रूप से बहने ली।

उस समय नर्मदा जी ने पुरूरवा से कहा-वत्स!तुम अपने हाथ मेरे जल का स्पर्श करो।' उनकी आज्ञा पाकर पुरूरवा ने उनके जलका स्पर्श एवं आचमन करके पितरों का तिळ और नर्मदा-जलसे तर्पण किया। उस जलसे तर्पण करनेपर राजा के समस्त पितृ उस परम पदको प्राप्त हो गये, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। समस्त चराचर जगत सब ओरसे पवित्र हो गया । ये देश, पर्वत, गाम और आश्रम भी पवित्र है। जहां नर्मदा जी विधमान है।

सरस्वती का जल तीन दिन में पवित्र करता है। यमुना-जल सात दिन मे पावन बनाता है, गना-जल स्नान करनेपर तत्काल पवित्र करता है, परंतु नर्मदा नदी दर्शन मात्र से ही मनुष्यों को पवित्र कर देती है। नर्मदाके संगम में जहाँ कहीं भी स्नान, दान ,जप ,होम, वेद पाठ, पितृ पूजन, देवाराधन मंत्रोपदेश संन्यास और देहत्याग आदि जो कुछ भी किया जाता है, उसके फलका अन्त नहीं । वैशाख , माघ अथवा कार्तिक की पूर्णिमा को निपुवयोग मे संक्रान्ति समय, व्यतीपात और वैधृतियोगमें, अमावस्या, तिथि की हानि और वृद्धिके दिन मन्यादि युगादि और कल्यादि तिथियों में माता-पिता के श्राद्ध में नर्मदा तटवर्ती ૐ कार भृगुक्षेत्र तथा विशेषतः संगम में जो सहस्त्र शत अथवा एक गोदान एवं सम्पूर्ण महादान करता है तथा जो श्रेष्ठ मनुष्य नर्मदा में स्नान, दान, जप, होम और पूजन आदि करता है, वह अश्वमेधयज्ञ का फल पाता है।

युधिष्ठिर ! मनुष्य नर्मदा में जहाँ जहाँ स्नान करता है, वहां वह उसे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर नर्मदा का कीर्तन करता है, उसका सात जन्मों का किया हुआ पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है तथा जहाँ संगम और बाणलिंग से युक्त नर्मदा नदी स्थित है, वहाँ स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और अंत में शिव धामको जाता है।

युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! राजा पु्रुवा से पहले महाराज हिरण्यतेजाने नर्मदेजी को किस प्रकार इस पृथ्वी पर उतारा था, यह बताने की कृपा करें । मार्कण्डेयजी बोले राजन् ! चंद्र वंश मे हिरण्यतेजा नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि हो गये हैं, जो समस्त धर्मात्माओ मे श्रेष्ठ तथा प्रजापति के समान थे। पर्वत, बन और कानन: सहित समूची पृथ्वी का एकछत्र शासन करते थे। उनकी राजधानी चन्द्रपुरी थी, जो इंद्र के अमरावती के समान शोभा पाती थी। एक समय अमावस्याको सूर्य ग्रहण लगने पर इस जम्बूद्वीप में बावली, कुओं और सरोवर होनेपर भी कोई नदी नहीं उप्लब्ध हो सकी, जहाँ देवताओं और पितरों का विशेष सत्कार हो सके। उस समय तक जम्बू द्वीप में कोई नदी थी ही नही। राजाने लाखों गौएँ, सुवर्ण, मणि, रथ, खजाना, घोड़े और अगणित मत वाले हाथी ब्राह्मणों को दान दिये। हव्य और कव्य से पितरों को भी तृप्त किया । उस समय उनहोंने देखा पितरो को जलपान का बडा कष्ट है ।वे पितरो से बोले-'आप लोग कौन हैं और किस कर्म से पवित्र हो सकते हैं '।


पितर बोले-महाभाग ! यहां द्वीप नदियों से रहित होने के कारण यहां का सब धर्म -कर्म नष्ट हो चुका है । नदी के अभाव से न देवता तृप्त होते है न पितर ।यदि इस द्वीप में नर्मदा उतर आये तो हम सब की मुक्ति हो जायेगी ।महाराज! यह यथार्थ बात हमने आप से बता दी हैं ।अब आपकी जैसी रुचि हो वैसा करें ।

हिरण्य तेजा ने कहा-अब मुझे पितरोंका उद्धार करना ही उचित प्रतीत होता है । अन्यथा इस राज्य से क्या काम !यदि मैं पितरोंको तृप न कर सका तो मेरा जीवन भी व्यर्थ है।



ऐसा कहकर राजा हिरण्यतेजा उदयाचल पर्वत गये और कन्द, मूल एवं फलका भोजन करते हुए भगवान शिव की उपासना करने लगे। उन्होंने बडी कठोर तपस्या की। उनकी उत्तम भक्ति जानकर त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। राजाने देवाधिदेव महादेव के दिव्य रूप का दर्शन पाकर उनकी तीन बार परिक्रमा की और साष्टांग प्रणाम करके उनका स्तवन किया।


राजा बोले-सुरेश्वर आपको नमस्कार है। शूलपाणे आपको नमस्कार है। प्रभु ! आप ही पृथ्वी, जल, तेज,वायु, आकाश , शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध, बुद्धि, मन अहंकार, प्रकृति और उसके तीनों गुण है। आप ही सम्पूर्ण इन्द्रियों के प्रेरक,सर्वत्र व्यापक,समस्त कला ओ से युक्त तथा कलारहित अविनाशी परमेश्वर है ।ब्रम्हा और विष्णु आदि देवता को भी आपके आदि-अन्तका पता नहीं लगता। महातेजा का किया हुआ वह स्तोत्र सुनकर देवाधि देव जगदीश्रर शिव ने कहा -महाभाग ! तुम अपने इच्छानुसार वर मांगो । तब राजा ने कहा-देवेश्वर ! सात कल्पो तक प्रवाहित होनेवाली नर्मदा देवी को आप मर्त्यलोक में उतारें। पितर घोर नरकमे डूब रहे हैं । उनका उद्धार हो और वे तृप्त हो कर मुक्ति एवं परम गति को प्राप्त हो, इसके लिये नर्मदा देवी का अवतरण आवश्यक है ।

महादेव जी बोले-तात नर्मदा जी तो ब्रम्हा ,विष्णु आदि देवताओ, देत्यो तथा अन्य अस्पजीवी प्राणियों द्वारा पृथ्वी पर नहीं उतारी जा सकती। अतः तुम कोई दूसरा वर मांगो । उसे अभी दे दूगा। 
तब महाभाग राजा हिरण्य तेजा ने कहा-प्रभो! आपके प्रसन्न होने पर तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं ।में तो सहस्त्रों जन्म धारण करने पर भी दूसरा वर नहीं माँगूगा । देवेश्वर ! मैं आपके सेवको का भी सेवक हूँ । मुझे नर्मदाजी को ही दीजिए।


राजाका यह निश्चय जानकर भगवान शंकर ने लोक पावनी नर्मदा देवी का आवाहन किया । वे मगरके आसनपर आरूढ़ हो दिव्य रूप से आकर शिवजी के आगे खडी हुई और उमा महेश्र्वर दोनों के चरणों का स्पर्श करके नतमस्तक हो बोली - 'देवेश! किसलिए मेरा स्मरण किया गया।

महादेव ने कहा- नर्मदे ! राजा हिरण्यतेजाने अपना राज्य छोड़कर यह चौदह हजार दिव्य वर्ष तक घोर तपस्या की अतः तुम इनकी इच्छा अनुसार पृथ्वी पर उतरो । शीघ्र जाओ और नर्क में पड़े हुए सब पितरोका उद्धार करो। नर्मदा बोली-देव' में बिना किसी आधारके जम्बूद्वीप में कैसे जाऊंगी।

यह सुनकर महादेवजी ने पर्वतो से कहा-तुम सब लोग क्षणभर स्थिर हो जाओ, जिससे सरिताओ में श्रेष्ठ नर्मदा पृथ्वी पर आये । 

तब पर्वतों ने कहा-देव ! हम नर्मदादेवी को धारण करने में असमर्थ है। उसी समय उदयाचल ने खड़े होकर कहा-महादेव की कृपासे में नर्मदा को धारण करने मे समर्थ हूँ।"

तदनन्तर उदयाचल की चोटी पर चरण देकर नर्मदा देवी आकाश से पृथ्वीपर आयी और वायु के समान वेगसे पश्चिम दिशा को बह चली । उस समय तीनो लोकों मे बड़ा हाहाकार मचा । नर्मदा के जलका वह भयंकर कल-कल नाद सुनकर पाताल लोकसे तेजोमय प्रज्वलित लिंग प्रकट हुआ और हुंकार पूर्वक बोला-सब पापों को हरने वाली तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली नर्मदा! मर्यादा धारण करो । तुम्हें धारण करनेके लिये महादेव जी ने तीन पर्वतों की पुष्टि की है-मेरु, हिमवान् और कैलाश तथा चौथा पर्वत श्रेष्ठ विन्ध्य भी तुम्हें धारण करने में समर्थ है। इन पर्वतोंकी लंबाई पूर्वसे पश्चिम दिशा की ओर बत्तीस हजार योजन है और दक्षिण से उत्तर की ओर चौडाई पाँच सौ योजन की है।"

तत्पश्चात् राजर्षि हिरण्य तेजा ने नर्मदा से कहा -देवि! आपने हमारे पितरोका उद्धार करनेके लिए बड़ा अनुग्रह किया है। नर्मदा ने उत्तर दिया-राजन् ! तुमने मेरे लिए महादेव की आराधना एवं तपस्या की है। इसलिये जो तुम्हारे माता पिता के वंश के लोग हैं, वे और तुम्हारी रानीवास में रहनेवाली स्त्रियों के भी जो सगे-सम्बन्धी है, ये सब मेरे प्रभाव से उमा महेश्वर के लोक में चले जायेंगे ।


तब राजाने नर्मदा में विधि पूर्वक स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण तथा श्राद्ध और पिण्डदान किया ।इससे उनके सब पितर नरकसे निकलकर देवयानमार्गपर स्थित हुए । यह नर्मदा का पहला अवतार आदि कल्पके सत्ययुगमे हुआ था। दूसरा अवतार क्षमता वर्णी मन्वन्तर में हुआ और तीसरा अवतार राजा पुरुरवा के द्वारा वैष्णव मन्वन्तर में सम्पन्न हुआ है। राजन् ! यह प्राचीन वृत्तांत जैसा मैंने अपनी आँखों देखा है, वैसा बतलाया । नर्मदा में स्नान करने, गोता लगाने, उसका जल पीने तथा स्मरण और कीर्तन करनेसे अनेक जन्मों का घोर पाप तत्काल नष्ट हो जाता है।


मार्कण्डेयजी कहते हैं-राजन् ! क्षत्रिय कुल में उत्पन्न पुरुकुत्सु नामक राजा महान् यशस्वी हो गये हैं। उन्होंने पहले एक सहस्त्र वर्षो तक महादेव की आराधना की।

उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर महादेवजी ने पूछा-राजन् !तुम कौन-सा वर चाहते हो ? राजाने कहा-देव ! नर्मदा नाम से प्रसिद्ध परम सौभाग्यशालिनी नदी है, उसे आप इस भूतलपर उतारें। महादेव जी बोले-राजन् ! इसे न माँगकर कोई दूसरा वरदान माँगो।। इतना सुनते ही ये महाभाग क्षत्रिय पुरुकुत्सु मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। यह देख शिवजीने कहा-राजन् ! तुम स्वस्थ हो जाओ। मैं सरिताओ में श्रेष्ठ नर्मदा को मर्त्यलोक मे उतारता हूँ।'

तदनन्तर महादेव के कहने पर पर्यडक नामक पर्वत ने महानदी नर्मदा के वेग को धारण करना स्वीकार किया । राजा और देवताओं के साथ देवी नर्मदा बड़े बेगसे चली और पर्यडक पर्वत की चोटी पर होती हुई उस स्थानपर पहुँची, जहाँ पूर्व काल में राजा पृथु ने अश्वमेध यज्ञ किया था । वहां एक याँसके मूल भाग से महानदी नर्मदा निकली। उस समय सब देवता, गन्धर्व, यक्ष, मरुत अश्विनी कुमार, पिशाच, राक्षस, नाग और तपोधन ऋषि-सब लोग अघ्यॅ और पाद्यसे पूजन करके नर्मदा की शरण में प्राप्त हुए और बोले-'आज हम लोग को जन्म सफल हुआ। हमारी तपस्या भी सफल हो गयी।


देवि ! यहाँ तुम्हारा दर्शन करके हम सब देवता कृतार्थ हो गये हम उसीको पुरुष मानते हैं, जिसने नर्मदा को यहां उतारा है। नर्मदे ! तुम अपने हाथ से देवताओं को स्पर्श करो, जिससे हम सब लोग पवित्र हो जाएं ।"

यह सुनकर नर्मदा बोली-में अब तक कुमारी हूँ, मेरा पति नहीं है । अतः मैं देवगणोंका स्पर्श नहीं कर सकती। नर्मदा का यह उत्तर पाकर देवता चिन्तामे व्याकूल हो उठे और बोले-'देवि ! तुम्हारे समान रूप-गुण से सम्पन्न उत्तम वर कहाँ से प्राप्त हो सकता है। जिसने तुम्हें इस लोक में प्रकट किया है, वही तुम्हारा पति हो । पूर्वकाल में ब्रह्माजी के शाप से समुद्र मर्त्य लोक में जाकर राजा पुरुकुत्सु के रूप में उत्पन्न हुआ है। वद इश्वाकुकुलके आनन्द को बढाने वाला है ।यह देव तुल्य क्षत्रिय पुरुकुत्सु तुम्हारे लिये श्रेष्ठ वर हो ।


नर्मदा बोली-जिनमे इस प्रकार देवत्व है, जिनकी समस्त प्रजा धर्ममें स्थित है, उन महात्मा पुरुकुत्सु के लिये और क्या कहा जा सकता है । स्वयम्भू ब्रह्मा के मानसपुत्र जिस प्रकार धर्मनिष्ठ बताये गये हैं, उसी प्रकार ये पुष्कुत्सु भी सब धर्मो के पालन में तत्पर हैं। अतः मैं इनको पतिरूपमें स्वीकार करती हूँ।


राजा पुरुकुत्सु बोले-नर्मदे ! तुम देवकन्या हो। मुझपर कृपा करो, जिससे मेरे पितर स्वर्गको जायँ और मेरा भी महान् यश हो।


नर्मदा ने कहा-राजेन्द्र ! ऐसा ही हो। आप मुझसे जो जो चाहते हैं वह सब मेरे प्रसाद से आपको प्राप्त हो। ऐसा कहकर देवी नर्मदा पर्यडक पर्वत से निकलकर पश्चिम दिशा की ओर चली गयी । वे धनुष से छूटे हुए बाण की भाँति पृथ्वी को विदीर्ण करती और पर्वतशिखरो को तोड़ती-फोड़ती हुई बडे वेग से चली जा रही थी। उस समय विन्ध्य पर्वतके प्रदेशमें वे जहाँ-जहां गयी, वहाँ- वहां स्नान किया जाता है। वहाँ तीर्थवर्जित स्थान में भी स्नान करनेपर सहस्त्रों गंगा-स्नान का फल होता है।


तदनन्तर वेदज्ञ महर्षियोंने सुख का विस्तार करनेवाली लोकपावनी महादेवी नर्मदा का स्तवन किया । वेद धर्म के मूल हैं, स्मृतियाँ फूल और फल है अग्निहोत्रपरायण पुण्यात्मा द्विज उस फल का उपभोग करते हैं। परंतु वे भी नर्मदा को स्वर्ग की सीढ़ी समझकर उसका सेवन करते हैं । जहाँ-जहाँ भगवान शिव के शुभ मन्दिरके समीप पुण्यमयी नर्मदा विद्यमान हैं, वहाँ-वहाँ नर्मदा नदी का स्नान एक लाख गङ्गा स्नान के समान होता है । अग्रिहोत्रसे जो पुण्य होता है और पितरो के श्राद्ध से जो फल प्राप्त होता है, वह सब नर्मदा के जल से उपलब्ध हो जाता है।

नर्मदा के नामका कीर्तन करना और उसके संगम तीर्थ में दान देना इसके समान दूरी कोई वस्तु नहीं है । जो बुद्धिमान् प्रातःकाल उठकर नर्मदा नदी का स्नान करते हैं, उनका पहले जन्म और इस जन्म का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। कोई भी मनुष्य यदि नर्मदा में जहां-कहीं भी स्नान कर लेता है उसका किया हुआ सो जन्म का पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो नर्मदा तटपर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह भगवान शंकर के स्वरूपको प्राप्त होता है। जहाँ नर्मदा नहीं हैं, वहाँ पापों का प्रायश्चित करने की प्रेरणा की जाती है; परंतु नर्मदा जल प्राप्त होने पर तो प्रायश्चित की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। 

विंध्यागिरी के आठ मानसपुत्र बताये गये है जिनमें पर्यडक प्रथम है ।उसे सब पर्वतों में श्रेष्ठ जानना चाहिए ।


नर्मदाके डेढ़ सौ स्तोत्र कहे गये हैं । आधे कोंसके तृतीय भाग (पांच सौ सतासी गज) की चौड़ाई में उसकी धारा बहती है, ऐसा विज्ञ पुरुषों ने बताया है। 
युधिष्ठिर ! परमेश्वरी नर्मदा ने देवताओ और मनुष्य के लिए स्वयं ही अपने आपको धारण किया है ।वे समस्त सरिताओ में श्रेष्ठ है और संपूर्ण जगत् को तारने के लिए ही यहां अवतरण हुई है ।


उनके तट पर स्वर्ग और मोक्ष दोनों ही स्थित हैं ।