कार्तिक मास में दीप दान दीपावली गोवर्धन पूजा और यमद्वितिया का महत्व
महादेव जी कार्तिकेय को कहते हैं कि-चन्दन, कपूर, अरगजा, केशर, केवड़ा और दीपदान भगवान केशवको सदा ही प्रिय हैं। कमल का पुष्प, तुलसीदल, मालती, अगस्त्य का फूल और दीपदान-ये पाँच वस्तुएँ कार्तिक में भगवान के लिये परम प्रिय मानी गयी है। कार्तिकेय ! केवड़े के फूल से भगवान हषीकेशका पूजन करके मनुष्य उनके परम पवित्र एवं कल्याणमय धामको प्राप्त होता है। जो अगस्त्य के फूलोंसे जनार्दनका पूजन करता है, उसके दर्शनसे नरककी आग बुझ जाती है। जैसे कौस्तुभमणि और वनमाली से भगवान को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार कार्तिक में तुलसी दल से वे अधिक संतुष्ट होते हैं।
कार्तिकेय ! अब कार्तिक में दिये जानेवाले दीपक माहात्म्य सुनो। मनुष्य के पितर अन्य पितृगणोंके साथ सदा इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि क्या हमारे कुलमें भी कोई ऐसा उत्तम पितृभक्त पुत्र उत्पन्न होगा, जो कार्तिक में दीपदान करके श्रीकेशवको संतुष्ट कर सके। स्कन्द ! कार्तिक में घी अथवा तिल के तेल से जिसका दीपक जलता रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञ से क्या लेना है। जिसने कार्तिक में भगवान केशव के समक्ष दीपदान किया है, उसने सम्पूर्ण यज्ञ का अनुष्ठान कर लिया और समस्त तीर्थों गोता लगा लिया। बेटा ! विशेषतः कृष्ण पक्ष में पाँच दिन बड़े पवित्र हैं। (कार्तिक कृष्णा १३ से कार्तिक शुक्ला २ तक) उनमें जो कुछ भी दान किया जाता है, वह सब अक्षय एवं सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कराने वाला होता है।
इसलिये रात्रि में सूर्यास्त हो जानेपर घरमें, गोशाला में, देववृक्ष के नीचे तथा मन्दिरोंमें दीपक जलाकर रखना चाहिये। देवताओं के मंदिरों में, श्मशान में और- नदियों के तट पर भी अपने कल्याण के लिये घृत आदिसे , पांच दिनोंतक दीपक जलाने चाहिये। ऐसा करनेसे जिनके- श्राद्ध और तर्पण नहीं हुए हैं, वे पापी पितर भी दीपदानके पुण्य से परम मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
कार्तिक के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को घर से बाहर यमराज के लिये दीप देना चाहिये। इससे मृत्यु का नाश होता है। दीप देते समय इस प्रकार कहना- चाहिए 'मृत्यु', पाशधारी काल और अपनी पत्नी के साथ सूर्यनंदन यमराज त्रयोदशी को दीप देनेसे प्रसत्र हों।* कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी का चंद्रोदय का समय नरकसे डरने वाले मनुष्य को अवश्य स्रान करना चाहिये जो चतुर्दशी को प्रातःकाल स्नान करता है, उसे यमलोक का
दर्शन नहीं करना पड़ता । (अपामार्ग तुम्बी (लौकी), प्रपुत्राट (चकवड़) और कट्फल (कायफल)-इनको स्नान के बीच में मस्तक पर घुमाना चाहिये। इससे नरक के भय का नाश होता है। उस समय इस प्रकार प्रार्थना करे-'हे अपामार्ग ! मैं हराईके ढेले, काँटे और पत्तोंसहित तुम्हें बार-बार मस्तक पर घुमा रहा हूँ। मेरे पाप हर लो। यों कहकर अपामार्ग और चकवड़ के मस्तक पर घुमाये। तत्पश्चात् यमराजके नामोंका उच्चारण करके तर्पण करे।
वे नाम-मन्त्र इस प्रकार हैं
यमाय नमः
| धर्मराजाय नमः
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मृत्यवे नमः
| अन्तकाय नमः
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वैवस्वताय नमः
| कालाय नमः
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सर्वभूतक्षयाय नमः
| औदुम्बराय नमः
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दघ्राय नमः
| नीलाय नमः
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परमेष्ठिने नमः
| वृकोदराय नमः
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चित्राय नमः
| चित्रगुप्ताय नमः
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देवताओं कापूजनकरके दीपदान करना चाहिये।
इसके बाद रात्रि के आरम्भ में भिन्न-भिन्न स्थानोंपर मनोहर दीप देना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिके मंदिरों में, गुप्त गृहोंमें, देववृक्षोंके नीचे, सभाभवनमें, नदियोंके किनारे, चहारदीवारीपर, बगीचेमें, बावलीके तटपर, गली-कूचोंमें, गृहोद्यानमें तथा एकान्त अश्वशालाओं एवं गजशालाओंमें भी दीप जलाने चाहिये। इस प्रकार रात व्यतीत होने पर अमावस्या को प्रातःकाल स्नान करे और भक्तिपूर्वक देवताओं तथा पितरों की पूजा और उन्हें प्रणाम करके पार्वण श्राद्ध करे।(अमावस्या को किये गये श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध कहते हैं)
फिर दही, दूध, घी आदि नाना प्रकारके भोज्य पदार्थ- द्वारा ब्राह्मणों को भोजन कराकर उनसे क्षमा-प्रार्थना करे। तदनन्तर भगवानन के जागनेसे पहले स्त्रियोंके द्वारा लक्ष्मीजीको जगाये। जो प्रबोधकाल (बाह्मुहू्त) में लक्ष्मी को जगाकर उनका पूजन करता है, उसे धन सम्पत्तिकी कमी नहीं होती। तत्पश्चात् प्रातःकाल (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को) गोवर्धन की पूजा करना चाहिये। उस समय गौओं तथा बैलों को आभूषणों से सजाना चाहिये। उस दिन उनसे सवारीका काम नहीं लेना चाहिये तथा गायोंको दुहना भी नही चाहिये। पूजनके पश्चात् गोवर्धनसे इस प्रकार प्रार्थना करें
गोवर्धन धराधर गोकुल त्राणकारक ।।
विष्णुबाहु कृतोच्छाय गवां कोटिप्रदो या भव।।
या लक्ष्मी लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ॥
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।।
अग्रतः सन्तु मे गावो गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।।
गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्॥
पृथ्वी को धारण करनेवाले गोवर्धन ! आप गोकुलके रक्षक हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने आपको अपनी भुजाओं पर उठाया था। आप मुझे कोटि-कोटि गौएँ प्रदान करें। लोकपालोंकी जो लक्ष्मी धेनुरूपमें स्थित हैं और यज्ञ के लिये घृत प्रदान करती है, वह मेरे पापको दूर करे। मेरे आगे गौएँ रहें, मेरे पीछे भी गौएँ रहें, मेरे हदय मे गौओंका निवास हो तथा मै भी गौओंके बीच में के निवास करूँ।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया पूर्वाह्न में यमकी पूजा करे। यमुनामें स्रान करके मनुष्य यमलोक को नहीं को देखता। कार्तिक शुक्ल द्वितीया पूर्वकाल में यमुनाने ; - यमराजको अपने घरपर सत्कारपूर्वक भोजन कराया था। उस दिन नारकी जीवोंको यातनासे छुटकारा मिला और उन्हें तृप्त किया गया। वे पाप-मुक्त होकर सब बन्धनोसे छुटकारा पा गये और सब-के-सब यहाँ अपनी इच्छाके अनुसार संतोषपूर्वक रहे। उन सबने मिलकर एक महान् उत्सव मनाया, जो यमलोकके राज्यको सुख पहुंचाने वाल था। इसीलिये यह तिथि तीनों लोकोंमें यम द्वितीया के नाम से विख्यात हुई; अतः विद्वान् पुरुषोंको उस दिन अपने घर भोजन नहीं करना चाहिये। वे बहन के घर जाकर उसीके हाथसे मिले हुए अन्न को, जो पुष्टिवर्धक है, स्नेहपूर्वक भोजन करें तथा जितनी बहनें हो, उन सबको पूजा और सत्कारके साथ विधिपूर्वक स्वर्ण, आभूषण एवं वस्त्र दें सगी बहन के हाथ का अन्न भोजन करना उत्तम माना गया है। उसके अभावमें किसी भी बहन के हाथ का अन्न भोजन करना चाहिये। वह बलको बढ़ाने वाला है। जो लोग उस दिन सुवासिनी बहनों को वस्त्र-दान आदि से संतुष्ट करते हैं, उन्हें एक साल तक कलह एवं शत्रु के भय का सामना नहीं करना पडता ।यह प्रसंग धन,यश,आयु,धर्म, काम एवं अर्थ की सिद्ध करने वाला है।