भगवान शिव के द्वारा सात वार का निर्माण एवं दान का विचार ।
सूतजीने ऋषियोंके पूछने पर भगवान शिव के द्वारा सात-वार और दान के कार्य का जो निर्माण किया था उसे ऋषियों को बताया ।
अग्निके बिना देव यज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे तुमलोग श्रद्धासे और आदरपूर्वक सुनो । सृष्टिके आरम्भमें सर्वज्ञ, दयालु और यज्ञ है सर्वसमर्थ महादेव ने समस्त लोकोंके उपकारके लिये वारों की कल्पना की। भगवान शिव संसाररूपी रोग को दूर करनेके लिये वैद्य हैं । समस्त औषधियों के भी औषध हैं। उन भगवान ने पहले अपने वारकी कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है। तत्पश्चात् अपनी मायाशक्तिका बार बनाया, जो संपत्ति प्रदान करनेवाला है। जन्मकालमें दुर्गतिग्रस्त बालककी रक्षाके लिये उन्होंने कुमारके वारकी कल्पना की। तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेव जीने आलस्य और पापकी निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करनेकी इच्छासे लोकरक्षक भगवान विष्णु का वार बनाया। इसके बाद सबके स्वामी भगवान शिवने पुष्टि और रक्षाके लिये आयु कर्ता त्रिलोक स्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्माका आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत के आयुष्यकी सिद्धि हो सके । इसके बाद तीनों लोक की वृद्धि के लिये पहले पुण्य-पापकी रचना हो जानेपर उनके करनेवाले लोगोंको शुभ अशुभ फल देनेके लिये भगवान शिव ने इन्द्र और यमके वारोंका निर्माण किया। ये दोनों वार क्रमश: भोग देनेवाले तथा लोगों की मृत्यु भय को दूर करनेवाले हैं। इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःखके सूचक है, भगवान शिवने उपर्युक्त सात बार का स्वामी निश्चित किया। वे सब-के-सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मंडल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार या दिनके स्वामी सूर्य है। शक्तिसम्बन्धी वारके स्वामी सोम हैं। कुमारसम्बन्धी दिनके अधिपति मङ्गल हैं। विष्णु वार के स्वामी बुध हैं। ब्रह्माजी के वार के अधिपति बृहस्पति हैं। इन्द्रवारके स्वामी शुक्र और यम वार के स्वामी शनैश्चर है। अपने-अपने वारमें की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देनेवाली होती है। सूर्य आरोग्य के और चन्द्रमा सम्पत्ति के दाता हैं। मंगल व्याधियों का निवारण करते है, बुध पुष्टि देते हैं। बृहस्पति आयुकी वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्यु का निवारण करते हैं। ये सात वारोंके क्रमशः फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रकृति से प्राप्त होते है। अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देनेवाले भगवान शिव ही हैं। देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकारकी ही पद्धति बनाई गई । उन-उन देवताओं के मंत्रों जप यह पहला प्रकार है। उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है। किसी वेदी पर, प्रतिमामें, अग्निमें अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है।
इनमें पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं। दोनों नेत्र तथा मस्तक रोग में और कुष्ठ रोग की शांति के लिये भगवान सूर्यकी पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनन्तर एक दिन, एक माह, एक वर्ष अथवा तीन वर्षतक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये । इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि रोगों का नाश हो जाता है।
इष्टदेव का नाम मंत्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं। रविवार को सूर्यदेव के लिये, अन्य देवताओं के लिये तथा ब्राह्मण के लिये विशिष्ट वस्तु अर्पित करे। यह साधन विशिष्ट फल देनेवाला होता है तथा इसके द्वारा विशेषरूपसे पापोंकी शान्ति होती है। सोमवार को बिद्वान् पुरुष सम्पत्तिकी प्राप्तिके लिये लक्ष्मी आदि की पूजा करें तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को घृतपाक अन्न का भोजन कराये। मङ्गल वार को रोगों की शांति के लिये काली आदि की पूजा करें तथा उड़द,
मग एवं अरहर की दाल आदिसे युक्त अन्न ब्राह्मणों को भोजन कराया। बुधवार को विद्वान् पुरुष दधि युक्त अन्न से भगवान विष्णु की पूजा करे। ऐसा करनेसे सदा पुत्र, मित्र और कलत्र आदिकी पुष्टि होती । जो दीर्घायु होनेकी इच्छा रखता हो, वह गुरुवार को देवताओं की पुष्टि के लिये वस्त्र , यज्ञोंपिवत तथा घृतमिश्रित खीर से यजन- पूजन करे। भोगोंकी प्राप्तिके लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिये पडरस युक्त अन्न दे। इसी प्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिये सुन्दर वस्त्र आदिका विधान करे । शनैश्चर अपमृत्युका निवारण करनेवाला है। उस दिन बुद्धिमान पुरुष रुद्र आदिकी पूजा करे। तिलके होमसे, दानसे देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को तिल मिश्रित अन्न भोजन कराये। जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फलका भागी होगा।
ऋषियों ने कहा-समस्त पदार्थ ज्ञान में श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमशः देश, काल आदिका वर्णन करें ,
सूतजी बोले- महर्षियों ! देवयज्ञ आदि कर्मो में अपना शुद्ध गृह समान फल देनेवाला होता है अर्थात् अपने घरमें किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फलको सममात्रामें देनेवाले होते हैं। गोशालाका स्थान घरकी अपेक्षा दसगुना फल देता है। जलाशय के तट उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्षका मूल निकट हो, वह स्थान जलाशयके तटसे भी दसगुना फल देनेवाला होता है। देवालयको उससे भी दसगुने महत्व का स्थान जानना चाहिए । देवालयसे भी दसगुना महत्व रखता है तीर्थभूमिका तट । उससे दसगुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा । उसके दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थनदीका तट और उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है।
सप्तगङ्गा नामक नदियों का तीर्थ
गङ्गा
गोदावरी
कावेरी
ताम्रपणी
सिन्धु
सरयू
नर्मदा
इन सात नदियों को सप्तगङ्गा कहा गया है। समुद्र के तट का स्थान इनसे भी दसगुना ना पवित्र माना गया है और पर्वत के शिखरका प्रदेश समुद्र तट से भी दसगुना पावन है।
सतयुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्ण फल देने वाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। त्रेतायुग में उसका तीन चौथाई फल मिलता है। द्वापर में सदा आधे ही फलकी प्राप्ति कही गयी है। कलयुग में एक चौथाई ही फलकी प्राप्ति समझनी चाहिये और आधा कलियुग बीतने पर उस चौथाई फलमेंसे भी एक चतुर्थांश कम हो जाता है। शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषको शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देनेवाला होता है।
विद्वान ब्राह्मणों! सूर्य-संक्रांति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिनकी अपेक्षा दसगुना फल देनेवाला होता है, यह जानना चाहिये। उससे भी दसगुना महत्त्व उस कर्म का है, जो विषुव* नामक योग में किया जाता है। दक्षिणायन आरम्भ होनेके दिन अर्थात् कर्क की संक्रांति में किये हुए पुण्य कर्म का महत्व विषुव से भी दसगुना माना गया है। उससे भी दसगुना मकर संक्रांति में और उससे भी दसगुना चन्द्रग्रहण में किये हुए पुण्यका महत्व है। सूर्यग्रहणका समय सबसे उत्तम है। उसमें किये गये पुण्य कर्म का फल चन्द्र ग्रहण से भी अधिक और पूर्ण मात्रा होता है, इस बातको विज्ञ पुरुष जानते हैं।
जगद् रुपी सूर्य का राहुरुपी विष से सहयोग होता है, इसलिए सूर्य ग्रहण का समय रोग प्रदान करने वाला है अतः उस विष की शांति के लिए स्नान, दान और जप करे।