आंवले के फल का महत्व
कार्तिकेय ने कहा-जगदीश्वर ! मैं अन्यान्य फलों की पवित्रता के विषय में भी प्रश्न कर रहा हूँ। सब लोगोंके हितके लिये यह बताइए कि कौन-कौन-से फल उत्तम हैं।
ईश्वरने कहा-बेटा ! आँवलेका फल समस्त लोकों में प्रसिद्ध और परम पवित्र है उसे लगानेपर स्त्री और पुरुष सभी जन्म-मृत्युके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। यह पवित्र फल भगवान श्री विष्णु को प्रसन्न करनेवाला एवं शुभ माना गया है, इसके भक्षणमात्रसे मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। आँवला खानेसे आयु बढ़ती है, उसका जल पीनेसे धर्म-संचय होता है और उसके द्वारा स्नान करनेसे दरिद्रता दूर होती है तथा सब प्रकारके ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। कार्तिकेय ! जिस घरमें आँवला सदा मौजूद रहता है, वहाँ दैत्य और राक्षस नहीं जाते। एकादशी के दिन यदि एक ही आँवला मिल जाय तो उसके सामने गङ्गा, गया, काशी और पुष्कर आदि तीर्थ कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते। जो दोनों पक्षोंकी एकादशी को आंवले से स्नान करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीविष्णुलोकमें सम्मानित होता है। षडानन ! जो आँवलेके रससे सदा अपने केश साफ करता है, वह पुनः माता के स्तन का दूध नहीं पीता। आंवले का दर्शन, स्पर्श तथा उसके नामका उच्चारण करनेसे सन्तुष्ट होकर वरदाय भगवान श्री विष्णु अनुकूल हो जाते हैं। जहाँ आंवले का फल मौजूद होता है, वहाँ भगवान श्री विष्णु सदा विराजमान रहते हैं तथा उस घरमें ब्रह्मा एवं स्थिर लक्ष्मी का भी वास होता । इसलिये अपने घरमें आँवला अवश्य रखना चाहिये। जो आंवला बना मुरब्बा एवं बहुमूल्य नैवेद्य अर्पण करता है, उसके ऊपर भगवान श्री विष्णु बहुत सन्तुष्ट होते हैं। उतना सन्तोष उन्हें सैकड़ों यज्ञ करनेपर भी नहीं हो सकता।
स्कन्द ! योगी, मुनियों तथा ज्ञानियोंको जो गति प्राप्त होती है, वही आंवला सेवन करने वाले मनुष्य को भी मिलती है। तीर्थों का वास एवं तीर्थ-यात्रा करनेसे तथा नाना प्रकार के व्रत से मनुष्य को जो गति प्राप्त होती है, वही आंवला फल का सेवन करनेसे भी मिल जाती है। तात ! प्रत्येक रविवार तथा विशेषतः सप्तमी तिथि को आँवला फल दूरसे ही त्याग देना चाहिये। संक्रान्तिके दिन, शुक्रवार को तथा षष्ठी, प्रतिपदा, नवमी और अमावस्या को आंवले को दूर से ही परित्याग करना उचित है। जिस मृतकके मुख, नाक, कान अथवा बालोंमें आंवले का फल हो, वह विष्णुलोकको जाता है। आँवलेके सम्पर्कमात्रसे मृत व्यक्ति भगवद्धामको प्राप्त होता है। जो धार्मिक मनुष्य शरीर में आंवले का रस लगाकर स्नान करता है, उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। उसके दर्शन मात्रसे जितने भी पापी जन्तु हैं, वे भाग जाते हैं तथा कठोर एवं दुष्ट ग्रह पलायन कर जाते है।
स्कन्द ! पूर्वकालकी बात है ,
एक चाण्डाल शिकार खेलनेके लिये वनमें गया। वहाँ अनेकों मृगों और पक्षियों को मारकर जब वह भूख-प्याससे अत्यन्त पीड़ित हो गया, तब सामने ही उसे एक आंवला का वृक्ष दिखाई दिया। उसमें खूब मोटे-मोटे फल लगे थे। चाण्डाल सहसा वृक्ष के ऊपर चढ़ गया और उसके उत्तम-उत्तम फल खाने लगा। प्रारब्धवश वह वृक्ष के शिखर से पृथ्वी पर गिर पड़ा और वेदनासे व्यथित होकर इस लोकसे चल बसा। तदनन्तर सम्पूर्ण प्रेत, राक्षस, भूतगण तथा यमराजके सेवक बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ आये; किन्तु उसे ले न जा सके। यद्यपि वे महान् बलवान् थे, तथापि उस मृतक चांडाल की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे। जब कोई भी उसे पकड़कर ले जा न सका, तब वे अपनी असमर्थता देख मुनियोंके पास जाकर बोले-'ज्ञानी महर्षियो !चाण्डाल तो बड़ा पापी था; फिर क्या कारण है कि हमलोग तथा ये यमराजके सेवक उसकी ओर देख भी न सके ?' 'यह मेरा है, यह मेरा है' कहते हुए हमलोग झगड़ा कर रहे हैं, किन्तु उसे ले जानेकी शक्ति नहीं रखते। क्यों और किसके प्रभावसे वह सूर्यकी भाँति दुष्प्रेषण हो रहा है-उसकी ओर दृष्टिपात करना भी कठिन जान पड़ता है।'
मुनियोंने कहा-प्रेतगण ! इस चाण्डालने आंवले के पके हुए फल खाये थे। उसकी डाल टूट जानेसे उसके संपर्क में ही इसकी मृत्यु हुई है। मृत्युकालमें भी इसके आस-पास बहुत-से फल बिखरे पड़े थे। इन्हीं सब कारणोंसे तुमलोगोंका इसकी ओर देखना कठिन हो रहा है। इस पापी का आँवले से संपर्क रविवार को या और किसी निषिद्ध वेलामें नहीं हुआ है। इसलिये यह दिव्य लोकको प्राप्त होगा।
प्रेत बोले-मुनिश्र्वरो! आपलोगोंका ज्ञान उत्तम है, इसलिये हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं। जबतक यहाँ श्रीविष्णुलोकसे विमान नहीं आता, तब तक आप लोग हमारे प्रश्न का उत्तर दे दें। जहाँ वेदों और नाना प्रकार के मन्त्रोंका गम्भीर घोष होता है, जहाँ पुराणों और स्मृतियों का स्वाध्याय किया जाता है, वहाँ हम एक क्षणके लिये भी नहीं ठहर सकते । यज्ञ, होम, जप तथा देव पूजा आदि शुभ कार्यों के सामने हमारा ठहरना असम्भव है; इसलिये हमें यह बताइये कि कौन-सा कर्म करके मनुष्य प्रेतयोनियोंको प्राप्त होते हैं। हमें यह सुनने की भी इच्छा है कि उनका शरीर विकृत क्यों कर हो जाता है।
ब्रह्मर्षि ने कहा ,
जो झूठी गवाही देते तथा वध और बन्धनमें पड़कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे नरकमें पड़े हुए जीव ही प्रेत होते हैं । जो ब्राह्मणों के दोष ढूढ़ने में लगे रहते हैं और गुरुजनोंके शुभ कर्म में बाधा पहुँचाते है तथा जो श्रेष्ठ ब्राह्मण को दिये जाने वाले दान में रुकावट डाल देते हैं, वे चिरकालतक प्रेतयोनिमें पड़कर नरकसे कभी उद्धार नहीं पाते। जो मूर्ख अपने और दूसरे के बैलोंको कष्ट दे उनसे बोझ ढोनेका काम लेकर उनकी रक्षा नहीं करते, जो अपनी प्रतिज्ञा का त्याग करते, असत्य बोलते और व्रत भङ्ग करते हैं तथा जो कमलके पत्तेपर भोजन करते हैं, वे सब इस पृथ्वी पर कर्मानुसार प्रेत होते हैं। जो अपने चाचा और मामा आदिकी सदाचारिणी कन्या तथा साध्वी स्त्री को बेच देते हैं, वे भूतलपर प्रेत होते हैं।
प्रेतोंने ने पूछा-ब्राह्मण! किस प्रकार और किस कर्मके आचरणसे मनुष्य प्रेत नहीं होते?
ब्राह्मणों ने कहा ,
जिस बुद्धिमान पुरुष ने तीर्थ के जलमें स्नान तथा शिव को नमस्कार किया है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो एकादशी अथवा द्वादशी को उपवास करके विशेषतः भगवान श्री विष्णु की पूजा करते हैं तथा जो वेदों के अक्षर, सूक्त, स्तोत्र और मन्त्र आदिके द्वारा देवताओं के पूजन में संलग्न रहते हैं, उन्हें भी प्रेत नहीं होना पड़ता। पुराणों के धर्मयुक्त दिव्य वचन सुनने, पढ़ने और पढ़ानेसे तथा नाना प्रकार के व्रत का अनुष्ठान करने और रुद्राक्ष धारण करनेसे जो पवित्र हो चुके हैं एवं जो रुद्राक्षकी मालापर जप करते हैं, वे प्रेतयोनिको नहीं प्राप्त होते। जो आँवलेके फलके रससे स्नान करके प्रतिदिन आँवला खाया करते हैं तथा आंवले के द्वारा भगवान श्रीविष्णुका पूजन भी करते हैं, वे कभी पिशाचयोनिमें नहीं जाते।
प्रेत बोले-महर्षियो ! संतोंके दर्शनसे पुण्य होता है-इस बातको पौराणिक विद्वान् जानते हैं हमें भी आपका दर्शन हुआ है; इसलिये आपलोग हमारा कल्याण करें। धीर महात्माओ ! किस उपायसे हम सब लोगोंको प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले, उसका उपदेश कीजिए । हम आपलोगोंकी शरणमें आये है। ब्राह्मण बोले-हमारे वचनसे तुमलोग आंवले का भक्षण कर सकते हो। वह तुम्हारे लिये कल्याणकारक होगा। उसके प्रभावसे तुम उत्तम लोकमें जानेके योग्य बन जाओगे।
महादेव जी कहते हैं-इस प्रकार ऋषियों से सुनकर पिशाच आंवले के वृक्ष पर चढ़ गये और उसका फल ले-लेकर उन्होंने बड़ी मौजके साथ खाया तब देवलोक से तुरंत ही एक पीले रङ्गका सुवर्णमय विमान उतरा, जो परम शोभायमान था। पिशाचों ने उसपर आरूढ़ होकर स्वर्ग लोक की यात्रा की।
बेटा ! अनेक बातों और यज्ञ का अनुष्ठान से भी जो अत्यन्त दुर्लभ है, वही लोक उन्हें आंवले का भक्षण करने मात्रसे मिल गया।
कार्तिकेय ने पूछा ,
पिताजी ! जब आँवलेके फलका भक्षण करने मात्रसे प्रेत पुण्यात्मा होकर स्वर्ग को चले गये, तब मनुष्य आदि जितने प्राणी हैं, वे भी आंवला खाने से क्यों नहीं तुरंत स्वर्ग में चले जाते ?
महादेवजीने कहा - बेटा! स्वर्ग की प्राप्ति तो उन्हें भी होती है, किन्तु तुरंत ऐसा न होनेमें एक कारण है-उनका ज्ञान लुप्त रहता है, वे अपने हित और अहितकी बात नहीं जानते। इसलिये आँवलेके महत्त्वमें उनकी श्रद्धा नहीं होती। जिस घरकी मालकिन सहज ही काबूमें न आने वाली, पवित्रता और संयमसे रहित, गुरुजनोंद्वारा निकाली हुई तथा दुराचारिणी होती है, वहाँ प्रेत रहा करते हैं। जो कुल और जातिसे नीच, बल और उत्साह से रहित, बहरे, दुर्बल और दीन है, वे कर्म जनित पिशाच है। जो माता, पिता, गुरु और देवताओं की निंदा करते हैं, पाखण्डी और वामभागीं हैं, जो गलेमें फाँसी लगाकर, पानीमें डूबकर, तलवार या छुरा भोंककर अथवा जहर खाकर आत्मघात कर लेते हैं, वे प्रेत होनेके पश्चात् इस लोकमें चांडाल आदि योनियोंके भीतर जन्म ग्रहण करते हैं जो माता-पिता आदि से द्रोह करते है ध्यान और अध्ययन से दूर रहते हैं, व्रत और देव पूजा नहीं करते, मन्त्र और स्नान से हीन रहकर गुरुपत्नी-गमनमें प्रवृत्त होते हैं तथा जो दुर्गतिमें पड़ी हुई चाण्डाल आदिकी स्त्रियोंसे समागम करते हैं, वे भी प्रेत होते है। म्लेच्छों के देश में जिनकी मृत्यु होती है, जो म्लेच्छों के समान आचरण करते और स्त्री के धन से जीविका चलाते हैं, जिनके द्वारा स्त्रियों की रक्षा नहीं होती, वे निःसन्देह प्रेत होते हैं। जो क्षुधासे पीड़ित, थके-माँदे, गुणवान् और पुण्यात्मा अतिथिके रूपमें घरपर आये हुए ब्राह्मण को लौटा देते हैं-उसका यथावत् सत्कार नहीं करते, जो गो-भक्षी म्लेच्छो के हाथ गौएँ बेच देते हैं, जो जीवनभर स्नान, सन्ध्या, वेद-पाठ, यज्ञ अनुष्ठान और अक्षर ज्ञान से दूर रहते हैं, जो लोग जूठे शकोरे आदि और शरीरके मल-मूत्र तीर्थ भूमिमें गिराते हैं, वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं। जो स्त्रियाँ पतिका परित्याग करके दूसरे लोगोंके साथ रहती हैं, वे चिरकालतक प्रेतलोकमें निवास करनेके पश्चात् चाण्डालयोनिमें जन्म लेती हैं। जो विषय और इन्द्रियोंसे मोहित होकर पतिको धोखा देकर स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती हैं, वे पापाचारिणी स्त्रियाँ चिरकालतक इस पृथ्वी पर प्रेत होती हैं। जो मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी वस्तुएँ लेकर उन्हें अपने अधिकार में कर लेते हैं और अतिथियोंका अनादर करते हैं, वे प्रेत होकर नरकमें पड़े रहते हैं। इसलिये जो आँवला खाकर उसके रससे स्नान करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक में प्रतिष्ठित होते हैं।
अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके तुम आँवलेके कल्याणमय फलका सेवन करो। जो इस पवित्र और मङ्गलमय उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर भगवान् श्री विष्णु के लोकमें सम्मानित होता है। जो सदा ही लोगोंमें, विशेषतः वैष्णवों में आंवले के माहात्म्यका श्रवण कराता है, वह भगवान श्री विष्णु के सायुज्य को प्राप्त होता
पद्म पुराण की कथा