सदाचार और उनके कर्तव्यों का क्रम
नारदजी ने पूछा-पिताजी सदाचार और उनके कर्तव्यों का क्रम बताये ।
ब्रह्मा ने कहा-वत्स! मनुष्य आचारसे आयु, धन तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। आचार शुभ लक्षणों का निवारण करता है। आचारहीन पुरुष संसारमें निन्दित, सदा दुःखका भागी, रोगी और अल्पायु होता है। अनाचारी मनुष्य को निश्चय ही नरकमें निवास करना पड़ता है तथा आचारसे श्रेष्ठ लोककी प्राप्ति होती है; इसलिये तुम आचारका यथार्थरूपमें वर्णन सुनो। कांसे के बर्तन राखसे और ताँबा खटाईसे शुद्ध होता है। सोने और चाँदी आदिके बर्तन जलमात्रसे धोनेपर शुद्ध हो जाते हैं। लोहे के पात्र आगके द्वारा तपाने और धोनेसे शुद्ध होता है। अपवित्र भूमि खोदने, जलाने, लिप ने तथा धोनेसे एवं वर्षासे शुद्ध होती है धातु निर्मित पात्र, मणिपात्र तथा सब प्रकारके पत्थरसे बने हुए पात्रकी भस्म और मृत्तिकासे शुद्धि बतायी गयी है। शय्या, स्त्री, बालक, वस्त्र, यज्ञोपवीत और कमण्डलु-ये अपने हों तो सदा शुद्ध हैं और दूसरेके हों तो कभी शुद्ध नहीं माने जाते । एक वस्त्र धारण करके भोजन और स्नान न करे। दूसरेका उतारा हुआ वस्त्र कभी न धारण करे । केशों और दांतों की सफाई सबेरे ही करनी चाहिये। गुरुजनोंको नित्यप्रति नमस्कार करना नित्यका कर्तव्य होना चाहिये। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख-इन पाँचों अङ्गोंको धोकर विद्वान् पुरुष भोजन आरम्भ करे। जो इन पाँचोंको धोकर भोजन करता है, वह सौ वर्ष जीता है । देवता, गुरु, स्नातक, आचार्य और यज्ञ में दीक्षित ब्राह्मण की छाया पर जानबूझ कर पैर नहीं रखना चाहिये। ब्राह्मण के अलावा किसी भी मनुष्य को ब्राह्मण की कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए इससे कुल का नाश होता है ।
गौओंके समुदाय, देवता, ब्राह्मण, घी, मधु, चौराहे तथा प्रसिद्ध वनस्पतियोंको अपने दाहिने करके चलना चाहिये। गौ-ब्राह्मण, अग्नि-ब्राह्मण, दो ब्राह्मण तथा पति-पत्नी के बीच से होकर नहीं निकलना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह स्वर्ग में रहता हो तो भी नीचे गिर जाता है। जूठे हाथ से अत्रि, ब्राह्मण, देवता,गुरु, अपने मस्तक, पुष्पवाले वृक्ष तथा यज्ञोपयोगी पेड़ का स्पर्श नहीं करना चाहिये। सूर्य चन्द्रमा और नक्षत्र-इन तीन प्रकारके तेजोंकी ओर जूठे मुंह कभी दृष्टि न डाले। इसी प्रकार ब्राह्मण, गुरु, देवता, राजा, श्रेष्ठ संन्यासी, योगी, देवकार्य करनेवाले तथा धर्म का उपदेश करने वाले द्विज की ओर भी जूठे मुँह दृष्टिपात न करे।
नदियों और समुद्र के किनारे, यज्ञ-सम्बन्धी वृक्ष की जड़के पास, बगीचे, फुलवारी में, ब्राह्मणों का निवास स्थानपर, गोशालामें तथा साफ-सुतरी सुन्दर सड़कों पर तथा जलमें कभी मल-त्याग न करे। धीर पुरुष अपने हाथ, पैर, मुख और केशों को रूखे रखे। दांतों पर मैल न जमने दे। नखको मुँहमें न डाले। रविवार ,शनिवार और मंगलको तेल न लगाये। अपने शरीर और आसनपर ताल न दे। गुरु के साथ एक आसनपर न बैठे। श्रोत्रिय का धन का अपहरण न करे देवता और गुरु का भी धन न ले। राजा, तपस्वी, पङ्गु, अंधे तथा स्त्री का धन भी न ले। ब्राह्मण, गौ, राजा, रोगी भार से दबा हुआ मनुष्य, गर्भिणी स्त्री तथा अत्यन्त दुर्बल पुरुष सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे होकर उन्हें जानेके लिये रास्ता दे। राजा, ब्राह्मण तथा वैद्यसे झगड़ा न करे। ब्राह्मण और गुरु-पत्नीसे दूर ही रहना चाहिए पतित, कोढ़ी, चाण्डाल, गोमांस-भक्षी और समाज बहिष्कृत को दूर से ही त्याग दे। जो स्त्री दुष्टा, दुराचारिणी, कलंक लगाने वाली, सदा ही कलहसे प्रेम करनेवाली, प्रमादिनी, निडर, निराला, बाहर घूमने-फिरनेवाली, अधिक खर्च करनेवाली और सदाचार से हीन हो, उसको भी दूरसे ही त्याग देना चाहिये। बुद्धिमान् शिष्यको उचित है कि वह रजस्वला अवस्थामें गुरुपलीको प्रणाम न करे, उसका चरण-स्पर्श न करे, यदि उस अवस्थामें भी वह उसे छू ले तो पुनः स्नान करनेसे ही उसकी शुद्धि होती है। शिष्य गुरु-पत्नीके साथ खेल-कूदमें भी भाग न ले। उसकी बात अवश्य सुने, किन्तु उसकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं। पुत्रवधू, भाईकी स्त्री, अपनी पुत्री, गुरु पुत्री का स्पर्श न करे।
उपर्युक्त स्त्रियोंकी ओर भौहें मटकाकर देखना, उनसे विवाह करना और अश्लील वचन बोलना सदा ही त्याज्य है। भूसी, अंगारे, हड्डी, राख, रूई, निर्माल्य (देवताको अर्पण की हुई वस्तु), चिताकी लकड़ी. चिता तथा गुरुजनों के शरीर पर कभी पैर न रखे। अपवित्र, दूसरेका उच्छिष्ट तथा दूसरेकी रसोई बनानेके लिये रखा हुआ अन्न का भोजन न करे धीर पुरुष किसी दुष्ट के साथ एक क्षण भी न तो ठहरे और न यात्रा ही करे। इसी प्रकार उसे दीपक की छाया में तथा बहेड़ेके वृक्ष के नीचे भी खड़ा नहीं होना चाहिये। अपनेसे छोटेको प्रणाम न करे चाचा और मामा आदिके आनेपर उठकर आसन दे और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहे। जो तेल लगाये हो [किस्तु स्नान न किये हो], जिसके मुंह और हाथ जूठे हों, जो भीगे वस्त्र पहने हो, रोगी हो, समुद्र में घुसा हो, उद्विग्न हो, भार दे रहा हो, यज्ञ-कार्यमें लिप्त हो, स्त्रियो के साथ क्रीड़ामें आसक्त हो, बालकके साथ खेल कर रहा हो तथा जिसके हाथों में फूल और कुश हों, ऐसे व्यक्तिको प्रणाम न करे। मस्तक अथवा कानोंको ढककर, जलमें खड़ा होकर, शिखा डालकर, पैरों विना धोये अथवा दक्षिणभिमुख होकर आचमन नहीं करना चाहिये। यज्ञोपवीत से रहित या नम होकर, कच्छ खोलकर अथवा एक वेश धारण करके आचमन करनेवाला पुरुष शुद्ध नहीं होता है। भीगे पैर सोना, अंधेरे मे शयन तथा भोजन करना निषिद्ध है। पश्चिम और दक्षिण की ओर मुंह करके दन्तधावन न करे। उत्तर और पश्चिम दिशा की ओर सिरहाना करके कभी न सोये; क्योंकि इस प्रकार शयन करने से आयु क्षीण होती है। पूर्व और दक्षिण दिशा की ओर सिरहाना करके सोना उत्तम है। मनुष्य के एक बारका भोजन देवताओं की भाग, दूसरी बारका भोजन मनुष्य की, तीसरी बार भोजन प्रेतों और दैत्यों की तथा चौथी बारका भोजन राक्षसों का भाग होता है।* जो स्वर्गमें निवास करके इस लोको पुनः उत्पन्न हुए है, उनके हृदय में नीचे लिखे चार सद्गुण सदा मौजूद रहते है-उत्तम दान देना, मीठे वचन बोलना, देवताओं का पूजन करना तथा ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना। इनके विपरीत कंजूसी, स्वजनोंकी निन्दा, मैले-कुचैले वस्त्र पहनना, नीच जनों के प्रति भक्ति रखना, अत्यन्त क्रोध करना और कटु वचन बोलना-ये नरकसे लौटे हुए मनुष्यों के चिन्ह है। नवनीतके समान कोमल वाणी और करुणासे भरा कोमल हृदय-ये धर्मबीजसे उत्पन्न मनुष्य की पहचान के चिह्न हैं दयाशून्य हृदय और आरीके समान मर्मस्थानोंको विदीर्ण करनेवाला तीखा वचन-ये पाप बीज से पैदा हुए पुरुषोंको पहचाननेके लक्षण है। जो मनुष्य इस आचार आदिसे युक्त प्रसङ्गको सुनता है सुनाता है, वह आचार आदिका फल पाकर पापों से शुद्ध हो स्वर्ग में जाता है और वहाँसे भ्रष्ट नहीं होता।