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17 / Jun / 2020


भगवान विष्णु द्वारा गंधर्व कन्या को वैद्यक संहिता का वर्णन - भाग 2

आयुर्वेद के समुद्र के ज्ञान रूपी मथानी से मथकर विद्वानोंने उससे नवनीत-स्वरूप ये तन्त्र-ग्रन्थ प्रकट किये हैं। 

आयुर्वेद के अनुसार रोगों का परिज्ञान करके वेदनाको रोक देना-इतना ही वैद्यका वैद्यत्व है। वैद्य आयुका स्वामी नहीं है-वह उसे घटा अथवा बढ़ा नहीं सकता। चिकित्सक आयुर्वेद का ज्ञान, चिकित्सा की क्रिया को यथार्थ रूप से जाननेवाला धर्मनिष्ठ और दयालु होता है; इसलिये उसे 'वैद्य' कहा गया है दारुण ज्वर समस्त रोगों का जनक है। उसे रोकना कठिन होता है वह शिव का भक्त और योगी है। उसका स्वभाव निष्ठुर होता है और आकृति विकृत (विकराल)। उसके तीन पैर, तीन सिर, छः हाथ और नौ नेत्र हैं वह भयंकर ज्वर काल, अन्तक और यमके समान विनाशकारी होता है। भस्म ही उसका अस्त्र है तथा रुद्र उसके देवता हैं। मन्दाग्नि उसका जनक है। 

मन्दाग्नि के जनक तीन हैं-वात, पित्त और कफ। ये है प्राणियों को दुःख देनेवाले हैं वातज, पित्तज और कफज-ये ज्वर के तीन भेद हैं एक चौथा ज्वर भी होता है, जिसे त्रिदोषज भी कहते हैं। पाण्डु, कामला, कुष्ठ, शोथ, प्लीहा, शूलक, ज्वर, अतिसार, संग्रहणी, खाँसी, व्रण (फोड़ा), हलीमक, मूत्रकृच्छ, रक्तविकार या रक्त दोष से उत्पन्न होनेवाला गुल्म, विषमेह, कुब्ज, गोद, गलगंड (घेंघा), भ्रमरी, सन्निपात, विसूचिका (हैजा) और दारुणी आदि अनेक रोग हैं। इन्हींके भेद और प्रभेद को लेकर चौंसठ रोग माने गये हैं ये चौंसठ रोग मृत्यु कन्या के पुत्र हैं और जरा उसकी पुत्री है। जरा अपने भाइयोंके साथ सदा भूतलपर भ्रमण किया करती है। ये सब रोग उस मनुष्य के पास नहीं जाते, जो इनके निवारणका उपाय जानता है और संयमसे रहता है। उसे देखकर वे रोग उसी तरह भागते हैं, जैसे गरुड़को देखकर साँप ।नेत्रोंको जलसे धोना, प्रतिदिन व्यायाम करना, पैरों के तलवोंमें तेल मलवाना, दोनों कानोंमें तेल डालना और मस्तक पर भी तेल रखना-यह प्रयोग जरा और व्याधि का नाश करनेवाला है। जो वसंत ऋतु में भ्रमण, स्वल्प मात्रा में अग्नि सेवन तथा नयी अवस्थावाली भार्या का यथासमय उपभोग करता है, उसके पास जरा-अवस्था नहीं जाती। ग्रीष्म- ऋतु में जो तालाब या पोखरेके शीतल जलमें स्नान करता, घिसा हुआ चन्दन लगाता और वायुसेवन करता है, उसके निकट जरा-अवस्था नहीं जाती। वर्षा-ऋतु में जो गरम जलसे नहाता है, वर्षा जलका सेवन नहीं करता और ठीक समयपर परिमित भोजन करता है, उसे वृद्धावस्था नहीं प्राप्त होती। जो शरद्-ऋतु की प्रचंड धूप का सेवन नहीं करता, उसमें घूमना-फिरना छोड़ देता है, कुएँ, बावड़ी या तालाबके जलमें नहाता है और परिमित भोजन करता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं फटकने पाती। जो हेमन्त-ऋतु में प्रातःकाल अथवा पोखरे आदिके जलमें स्रान करता, यथा समय आग तापता, तुरंतकी तैयार की हुई गरम-गरम रसोई खाता है, उसके पास जरा अवस्था नहीं जाती है। जो शिशिर-ऋतु गरम कपड़े, प्रज्वलित अग्नि और नये बने हुए गरम गरम अन्ना सेवन करता है तथा गरम जलसे ही स्नान करता है, उसके समीप वृद्धावस्था की पहुँच नहीं होती। जो तुरंतके बने हुए ताजे अन्नका, खीर और घृतका तथा समयानुसार तरुणी स्त्री का उचित सेवन करता है, वृद्धावस्था उसके निकट नहीं जाती। जो भूख लगने पर ही उत्तम अन्न खाता, प्यास लगनेपर ठंडा जल पीता और प्रतिदिन ताम्बूल का सेवन करता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं पहुँचती। जो प्रतिदिन दही, ताजा मक्खन और गुड़ खाता तथा संयमसे रहता है, उसके समीप जरावस्था नहीं जाती है। जो मांस, वृद्धा स्त्री, तथा तरुण दधि (पाँच दिनके रखे हुए दही)-का सेवन करता है, उसपर जरावस्था अपने भाइयोंके साथ हर्षपूर्वक आक्रमण करती है सुन्दरि! जो रातको दही खाते हैं, कुलटा एवं रजस्वला स्त्री का सेवन करते हैं, उनके पास भाइयों सहित जरावस्था बड़े हर्षके साथ आती है। रजस्वला, कुलटा, विधवा, जारदूती, शूद्र के पुरोहित की पत्नी तथा ऋतु हिना जो स्त्रियां हैं, उनका अन्न भोजन करनेवाले लोगोंको बड़ा पाप लगता है, उस पापके साथ ही जरावस्था उनके पास आती है। रोगों के साथ पापों की सदा अटूट मैत्री होती है। पाप ही रोग, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकारके विघ्र का बीज है। पाप से रोग होता है, पाप से बुढ़ापा आता है और पापसे ही दैन्य, दु:ख एवं भयंकर शोक की उत्पत्ति होती है इसलिये भारत के संत पुरुष सदा भयातुर हो कभी पापका आचरण नहीं करते। क्योंकि वह महान् वैर उत्पन्न करनेवाला, दोषोंका बीज और अमङ्गलकारी होता है।



जो अपने धर्मके आचरणमें लगा हुआ है, भगवान के मंत्र की दीक्षा ले चुका है, श्रीहरिकी समाराधनामें संलग्न है, गुरु, देवता और अतिथियोंका भक्त है, तपस्या में आसक्त है, व्रत और उपवास में लगा रहता है और सदा तीर्थसेवन करता है, उसे देखकर रोग उसी तरह भाग जाते हैं, जैसे गरुड़को देखकर साँप। ऐसे पुरुषोंके पास जरा-अवस्था नहीं जाती है और न दुर्जय रोगसमूह ही उसपर आक्रमण करते हैं। 




वात, पित्त और कफ-ये तीन ज्वर के जनक हैं। ये जिस प्रकार देहधारियोंमें संचार करते और स्वयं जाते हैं, उसके विविध कारणों तथा उपायोंको मुझसे सुनो। जब भूखकी आग प्रज्वलित हो रही हो और उस समय आहार न मिले तो प्राणियोंके शरीरमें-मणिपूरक' चक्रमें पित्तका प्रकोप होता है। ताड़ और बेलका फल खाकर तत्काल जल पी लिया जाय तो वही सद्यः प्राणनाशक पित्त हो जाता है। जो देव का मारा हुआ पुरुष शरद् ऋतु में गरम पानी पीता और भादो में तिक्त भोजन करता है, उसका पित्त बढ़ जाता है। धनिया पीसकर उसमें शक्कर के साथ ठंडे जलमें घोल दिया जाय तो उसको पीनेसे पित्त की शान्ति होती है। चना सब प्रकार का, गव्य पदार्थ, ताररहित दही, पके हुए बेल और ताडके फल, ईख के रस से बनी हुई सब वस्तुएँ, अदरक, मूंग की दाल का जूस तथा शर्करा मिश्रित तिलका चूर्ण-ये सब पित्तका नाश करनेवाली ओषधियाँ हैं, जो तत्काल बल और पुष्टि प्रदान करती हैं पित्तका कारण और उसके नाशका उपाय बताया गया। अब दूसरी बात मुझसे सुनो। भोजन के बाद तुरंत स्नान करना, बिना प्यास के जल पीना, सारे शरीर में तिल का तेल मलना, स्निग्ध तैल तथा निग्ध आँवलेके द्रव का सेवन, बासी अन्नका भोजन, तक्रपान, केलेका पका हुआ फल, दही, वर्षा का जल, शक्कर का शर्बत, अत्यन्त चिकनाईसे युक्त जल का सेवन, नारियल का जल, बासी पानी से रूखा स्नान (बिना तेल लगाये नहाना), तरबूज के पके फल खाना, ककड़ीके अधिक पके हुए फलका सेवन करना, वर्षा- ऋतु में तालाब में नहाना और मूली खाना-इन सबसे कफकी वृद्धि होती है। वह कफ ब्रह्मरन्ध्रमें उत्पन्न होता है, जो महान् वीर्यनाशक माना गया है। आग तापकर शरीरसे पसीना निकालना, भूजी भाँगका सेवन करना, पकाये हुए तेल-विशेषको काममें लाना, घूमना, सूखे पदार्थ खाना, सूखी पकी हरैका सेवन करना, कच्चा पिण्डारक (पिण्डारा), कच्चा केला, बेसवार (पीसा हुआ जीरा, मिर्च, लौंग आदि मसाला), सिन्धुवार (सिन्दुवार या निर्गुंडी), अनाहार (उपवास), अपानक (पानी न पीना), घृतमिश्रित रोचना-चूर्ण, घी मिलाया हुआ सूखा शक्कर, काली मिर्च, पिप्पली, सूखा अदरक, जीवक (अष्टवर्गान्तर्गत औषधविशेष) तथा मधु-ये द्रव्य तत्काल कफको दूर करनेवाले तथा बल और पुष्टि देनेवाले हैं। 

अब वातके प्रकोपका कारण सुनो। भोजन के बाद तुरंत पैदल यात्रा करना, दौड़ना, आग तापना, सदा घूमना और मैथुन करना, वृद्धा स्त्रीके साथ सहवास करना, मनमें निरन्तर संताप रहना, अत्यन्त रूखा खाना, उपवास करना, किसीके साथ जूझना, कलह करना, कटु वचन बोलना, भय और शोक से अभिभूत होना-ये सब केवल वायुकी उत्पत्तिके कारण हैं आज्ञा नामक चक्रमें वायुकी उत्पत्ति होती है। अब उसकी औषधि सुनो। केलेका पका हुआ फल, बिजौरा नींबू फलके साथ चीनी का शरबत, नारियल का जल, तुरंतका तैयार किया हुआ तक्र, उत्तम पट्टी (पूआ, कचौड़ी आदि), भैंसका केवल मीठा दही या उसमें शक्कर मिला हो, तुरंतका बासी अर्थ, सौवीर (जौकी काँजी), ठंडा पानी, पकाया हुआ तेलविशेष अथवा केवल तिल का तेल, नारियल, ताड़, खजूर, आंवला से  बना हुआ उष्ण द्रव्य पदार्थ, ठंडे और गरम जल का स्नान, सुस्निग्ध चन्दनका द्रव, चिकने कमलपत्रकी शय्या और स्निग्ध व्यञ्जन-वत्से! ये सब वस्तुएँ तत्काल ही वायुदोषका नाश करनेवाली हैं मनुष्योंमें तीन प्रकारके वायु-दोष होते हैं। शारीरिक क्लेशजनित, मानसिक संतापजनित और काम जनित। इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष रोगसमूहका वर्णन किया तथा उन रोगों के नाशके लिये श्रेष्ठ विद्वानोंने जो नाना प्रकारके तन्त्र बनाये हैं, उनकी भी चर्चा की। वे सभी तन्त्र रोगों का नाश करनेवाले हैं उनमें रोग निवारण के लिये रसायन आदि परम दुर्लभ उपाय बताये गये हैं।