पच्जदेवी रुपा प्रकृति का तथा उनके अंश कला का वर्णन - भाग 1
भगवान नारायण कहते हैं-नारद! गणेशजननी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा-ये पाँच देवियाँ प्रकृति कहलाती हैं। इन्हींपर सृष्टि निर्भर है।
नारद ने पूछा-ज्ञानियों में प्रमुख स्थान प्राप्त करनेवाले साधो! वह प्रकृति कहाँसे प्रकट हुई है, उसका कैसा स्वरूप है, कैसे लक्षण हैं तथा क्यों वह पाँच प्रकार की हो गयी? उन समस्त देवियों के चरित्र, की पूजा का विधान, उनके गुण और वे किसके यहाँ कैसे प्रकट हुई-ये सभी प्रसङ्ग आप मुझे बतानेकी कृपा करें।
भगवान नारायण ने कहा-वत्स! 'प्र' का अर्थ है 'प्रकृष्ट' और 'कृति' से सृष्टिके अर्थका बोध होता है, अतः सृष्टि करने में जो प्रकृष्ट (परम प्रवीण) है, उसे देवी प्रकृति' कहते हैं। सर्वोत्तम सत्वगुण का अर्थ में 'प्र' शब्द, मध्यम रजोगुण के अर्थमें 'कृ' शब्द और तमोगुण का अर्थ में 'ति' शब्द है। जो त्रिगुणात्मकस्वरूपा है, वही सर्वशक्तिसे सम्पन्न होकर सृष्टिविषयक कार्यमें प्रधान है, इसलिये 'प्रधान' या 'प्रकृति' कहलाती है। 'प्र' प्रथम अर्थमें और 'कृति' सृष्टि-अर्थमें है। अतः जो देवी सृष्टिकी आदिकारणरूपा है, उसे प्रकृति कहते हैं। सृष्टिके अवसरपर परब्रह्म परमात्मा स्वयं दो रूपोंमें प्रकट हुए- प्रकृति और पुरुष। उनका आधा दाहिना अङ्ग 'पुरुष' और आधा बायाँ अङ्ग 'प्रकृति' हुआ। वही प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, सत्य और सनातन माया है। जैसे परमात्मा हैं, वैसी उनकी शक्तिस्वरूपा प्रकृति है सृष्टि-रचनाके लिये इनके पाँच रूप हो गये। भगवती प्रकृति भक्तोंके अनुरोध से अथवा उनपर कृपा करनेके लिये विविध रूप धारण करती हैं। जो गणेश की माता भगवती दुर्गा' हैं, उन्हें शिवस्वरूप' कहा जाता है। ये भगवान शंकर की प्रेयसी भार्या हैं।
नारायणी, विष्णु माया और पूर्ण ब्रह्मस्वरूपिणी नामसे ये प्रसिद्ध है। ब्रह्मादि देवता, मुनिगण तथा मनु प्रभृति-सभी इनकी पूजा करते हैं। ये सबकी अधिष्ठात्री देवी हैं, सनातन ब्रह्म स्वरूपा हैं। यश, मङ्गल, धर्म, श्री, सुख, मोक्ष और हर्ष प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दुःख शोक और उद्वेगको ये दूर कर देती हैं शरणमें आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में सदा संलग्न रहती हैं। ये तेज:स्वरूप है। इसका विग्रह परम तेजस्वी है। इन्हें तेजकी अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है। ये सर्वशक्तिस्वरूपा हैं और भगवान शंकर को निरन्तर शक्तिशाली बनाये रखती हैं। सिद्धेश्वरी, सिद्धिरूपा, सिद्धिदा, सिद्धि दाता की ईश्वरी, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति भ्रान्ति, शान्ति, कान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, आवृत्ति और माता-ये सब इनके नाम हैं। श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं। उनके समीप सर्वशक्तिरूपसे ये विराजती हैं। श्रुतिमें इनके सुविख्यात गुणका अत्यन्त संक्षेपमें वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमोंमें उपलब्ध होता है। ये अनन्ता हैं। अतएव इनमें गुण भी अनन्त है । अब इनके दूसरे रूपका वर्णन करता हूँ|
सुनो। जो परम शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हैं, उन्हें 'भगवती लक्ष्मी' कहा जाता है। परम प्रभु श्री हरि की वे शक्ति कहलाती हैं। अखिल जगत्की सारी सम्पत्तियाँ उनके स्वरूप उन्हें सम्पत्ति अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। वे परम सुन्दरी, अनुपम संयमरूपा, शान्तस्वरूपा, श्रेष्ठ स्वभावसे सम्पन्न तथा समस्त मङ्गलोंकी प्रतिमा है लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद और अहंकार आदि दुर्गुणोंसे वे सहज ही रहित हैं भक्तों पर अनुग्रह करना तथा अपने स्वामी श्री हरि से प्रेम करना उनका स्वभाव है। वे सबकी आदिकारणरूपा और पतिव्रता हैं। श्रीहरि प्राणके समान जानकर उनसे अत्यन्त प्रेम करते हैं। वे सदा प्रिय वचन ही बोलती हैं; कभी अप्रिय बात नहीं कहती; धान्य आदि सभी शस्य तथा सबके जीवन-रक्षाके उपाय उन्होंने यह रूप धारण कर रखा है। वे परम साध्वी देवी 'महालक्ष्मी' नामसे विख्यात होकर वैकुण्ठ में अपने स्वामीकी सेवामें सदा संलग्न रहती हैं। स्वर्ग में 'स्वर्ग लक्ष्मी', राजाओं के यहाँ 'राजलक्ष्मी' तथा मर्त्यलोक वासी गृहस्थोंके घर 'गृह लक्ष्मी के रूपमें वे विराजमान हैं। समस्त प्राणियों तथा द्रव्योंमें सर्वोत्कृष्ट शोभा उन्हींका स्वरूप है भक्तोंकी माता हैं और उन भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये सदा व्याकुल रहती हैं। इस प्रकार दूसरी शक्ति (या प्रकृति) का परिचय दिया गया। उनका वेदों में वर्णन है तथा सबने उनका सम्मान किया है सब लोग उनकी आराधना और वंदना करते हैं।
नारद! अब मैं अन्य प्रकृतिदेवीका परिचय देता हूँ, सुनो। परब्रह्म परमात्मा से सम्बन्ध रखनेवाली वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञान की जो अधिष्ठात्री देवी हैं, उन्हें 'सरस्वती' कहा जाता है। सम्पूर्ण विद्याएँ उन्होंके स्वरूप हैं। मनुष्य को बुद्धि, कविता, मेधा, प्रतिभा और स्मरण-शक्ति उन्हीं की कृपा से प्राप्त होती हैं अनेक प्रकारके सिद्धांत भेदों और अर्थोकी कल्पनाशक्ति वे ही देते हैं वे व्याख्या और बोधस्वरूपा हैं। उनकी कृपासे समस्त संदेह नष्ट हो जाते हैं। उन्हें विचारकारिणी और ग्रन्थकारिणी कहा जाता है। वे शक्तिस्वरूपा हैं। सम्पूर्ण संगीत की सन्धि और तालका कारण उन्हीं का रूप है। प्रत्येक विश्वमें जीवोंके लिये विषय, ज्ञान और वाणीरूपा वे ही हैं। उनका एक हाथ व्याख्या (अथवा उपदेश) की मुद्रामें सदा उठा रहता है वे शान्तस्वरूपा हैं तथा हाथमें वीणा और पुस्तक लिये रहती हैं। उनका विग्रह शुद्धसत्त्वमय है। वे सदाचारपरायण तथा भगवान श्री हरि की प्रिया हैं। हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद और कमलके समान उनकी कान्ति है। वे रत्न (स्फटिकमणि)-की माला फेरती हुई भगवान् श्रीकृष्ण के नामों का जप करती हैं। उनकी मूर्ति तपोमयी है। तपस्वीजनोंको उनके तप का फल प्रदान करनेमें वे सदा तत्पर रहती हैं। सिद्धि-विद्या उनका स्वरूप है। वे सदा सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करती हैं इस प्रकार तृतीय देवी (प्रकृति) श्री जगदंबा सरस्वती का शास्त्र के अनुसार किसका वर्णन किया गया
अब चौथी प्रकृतिका परिचय सुनो। नारद! वे चारों वेदों की माता है छन्द और वेदाङ्ग भी उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं संध्या-वन्दनके मन्त्र और तन्त्र की जननी भी वे ही हैं। द्विजाति वर्गों के लिये उन्होंने अपना यह रूप धारण | किया है। वे जगद्रूपा, तपस्विनी, ब्रह्मतेजसे सम्पन्न तथा सबका संस्कार करनेवाली हैं उन पवित्र रूप धारण करनेवाली देवीको 'सावित्री अथवा 'गायत्री' कहते हैं। वे ब्रह्माकी परम प्रिय शक्ति हैं। तीर्थ अपनी शुद्धिके लिये उनके स्पर्शकी कामना करते हैं। शुद्ध स्फटिकमणिके समान उनकी स्वच्छ कान्ति है। वे शुद्ध सत्त्वमय विग्रहसे शोभा पाती हैं। उनका रूप परम आनन्दमय है। मोक्ष प्रदान करना उनका स्वाभाविक गुण है वे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न परमशक्ति हैं। उन्हें शक्ति की अधिष्ठात्री माना जाता है। नारद! उनके चरणकी धूलि सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देती है। नारद! इन चौथी देवी का प्रसंग सुना चुका। अब तुम्हें पाँचवीं देवी का परिचय देता हूँ।
ये प्रेम और प्राणोंकी अधिदेवी तथा पञ्चप्राण स्वरूपिणी हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। सम्पूर्ण देवियों में अग्रगण्य हैं, सबकी अपेक्षा इनमें सुन्दरता अधिक है। इनमें सभी सद्गुण सदा विद्यमान हैं ये परम सौभाग्यवती और मानिनी हैं। इन्हें अनुपम गौरव प्राप्त है। परब्रह्म का वामा दाङ्ग ही इनका स्वरूप है। ये ब्रह्म के समान ही गुण और तेजसे सम्पन्न हैं। इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातन, परमानंद रूपा, धन्या, मान्या और पूजा कहा जाता है। ये नित्यनिकुञ्जेश्वरी, रासक्रीड़ाकी अधिष्ठात्री देवी हैं परमात्मा श्री कृष्ण के रासमण्डलमें इनका आविर्भाव हुआ है इनके विराजनेसे रासमण्डलकी विचित्र शोभा होती है। गोलोकधाममें रहनेवाली ये देवी 'राजेश्वरी' एवं 'सुरसिका' नामसे प्रसिद्ध हैं। रासमण्डलमें पधारे रहना इन्हें बहुत प्रिय है। ये गोपीके वेषमें विराजती हैं। इच्छा और अहंकारसे ये रहित हैं। | भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही इन्होंने अवतार धारण कर रखा है। ये अग्नि शुद्ध नीले रंगके दिव्य वस्त्र धारण करती हैं।अनेक प्रकारके दिव्य आभूषण इन्हें सुशोभित किये रहते हैं। इनकी कान्ति करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान है श्री वृषभानु के घर पुत्रीके रूपसे ये पधारी हैं।भगवान् श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर इस प्रकार विराजती हैं, ये ही पाँचवीं देवी भगवती राधा' के नामसे प्रसिद्ध हैं।
ये पाँच देवियाँ परिपूर्णतम कही गयी है इन देवियोंके जो-जो प्रधान अंश हैं, अब उनका वर्णन करता हूँ, सुनो।
भूमण्डलको पवित्र करनेवाली गङ्गा इनका प्रधान अंश हैं। ये सनातन 'गङ्गा' जलमयी हैं। भगवान विष्णु के विग्रहसे इनका प्रादुर्भाव हुआ है पापियोंके पापमय ईंधन को भस्म करनेके लिये ये प्रज्वलित अग्नि हैं। इन्हें स्पर्श करने, इनमें नहाने अथवा इनका जलपान करनेसे पुरुष कैवल्य-पद का अधिकारी हो जाते हैं। इनका रूप परम पवित्र है समस्त तीर्थों और नदियों में से श्रेष्ठ मानी जाती हैं। ये भगवान शंकर के मस्तक पर जटा में ठहरी थीं। वहाँसे निकली और पंक्तिबद्ध होकर भारतवर्ष में आ गयी।इनका शुद्ध एवं सत्त्वमय स्वरूप चन्द्रमा, श्वेतकमल या दूध के समान स्वच्छ है। मल और अहंकार इनमें लेशमात्र भी नहीं है। ये परम साध्वी गङ्गा भगवान नारायण को बहुत प्रिय हैं।
श्री 'तुलसी' को प्रकृति देवी के प्रधान अंश माना जाता है। ये विष्णुप्रिया हैं विष्णु को विभूषित किये रहना इनका स्वाभाविक गुण है। भगवान विष्णु के चरण में ये सदा विराजमान रहती हैं। मुने! तपस्या, संकल्प और पूजा आदि सभी शुभ कर्म इन्होंसे शीघ्र सम्पन्न होते हैं। पुष्पोंमें ये मुख्य मानी जाती हैं। ये परम पवित्र एवं सदा पुण्यप्रदा हैं। अपने दर्शन और स्पर्शमात्रसे ये तुरंत मनुष्य को परमधाम के अधिकारी बना देती हैं। पापमयी सूखी लकड़ीको जलानेके लिये प्रज्वलित अग्नि के समान रूप धारण करके ये कलिमें पधारी हैं। इन देवी तुलसी के चरण कमल का स्पर्श होते ही पृथ्वी परम पावन बन गयी। तीर्थ स्वयं पवित्र होनेके लिये इनका दर्शन एवं स्पर्श करना चाहते हैं। इनके अभावमें अखिल जगत्के सम्पूर्ण कर्म निष्फल समझे जाते हैं। इनकी कृपासे मुमुक्षुजन मुक्त हो जाते हैं। जो जिस कामनासे इनकी उपासना करते हैं, उनकी वे सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। भारतवर्ष में वृक्ष रूप में पधारने वाली ये देवी कल्पवृक्षस्वरूपा हैं
प्रकृति देवी के एक अन्य प्रधान अंशका नाम देवी 'जरत्कारु' है। ये कश्यप की मानसपुत्री हैं; अत: 'मनसा' देवी कहलाती हैं। उन्हें भगवान शंकर के प्रिय शिष्या होनेका सौभाग्य प्राप्त है। ये परम विदुषी हैं। नागराज शेषकी बहन हैं। सभी नाग इनका सम्मान करते हैं। नागकी सवारीपर चलनेवाली इन अनुपम सुन्दरी देवीको 'नागेश्वरी' और 'नाग माता' भी कहा जाता है। प्रधान-प्रधान नाग इनके साथ विराजमान रहते हैं। ये नागोंसे सुशोभित रहती हैं नागराज इनकी स्तुति करते हैं। ये सिद्ध योगिनी हैं और नागलोकमें निवास करती हैं। ये विष्णु स्वरूपिणी हैं। भगवान विष्णु मे इनकी अटल श्रद्धा-भक्ति है। ये सदा श्रीहरि की पूजा में संलग्न रहती हैं। इनका विग्रह तपोमय है। तपस्वीजनोंको फल प्रदान करनेमें ये परम कुशल है ये स्वयं भी तपस्या करती हैं। इन्होंने देवताओं के वर्ष में तीन लाख वर्ष तक भगवान श्री हरि की प्रसन्नता के लिये तपस्या की है।सर्प-सम्बन्धी मन्त्र की ये अधिष्ठात्री देवी हैं। ब्रह्मतेजसे इनका विग्रह सदा प्रकाशमान रहता है। इनको 'परब्रह्म स्वरूपा' कहते हैं ये ब्रह्म के चिंतन में सदा संलग्न रहती हैं। जरत्कारु मुनि भगवान् श्रीकृष्ण के अंश हैं उन्होंकी ये पतिव्रता पत्नी हैं। मुनिवर आस्तीक, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ गिने जाते हैं, ये देवी उनकी माता हैं।
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