नाना प्रकारके उत्पात और उनकी शांति के उपाय
पुष्कर कहते हैं-परशुराम! प्रत्येक वेद के श्री सूक्त को जानना चाहिये। वह लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला है। 'हिरण्यवर्णा हरिणीं' इत्यादि पंद्रह ऋचाएँ ऋग्वेदीय श्रीसूक्त हैं।
जो भक्तिपूर्वक श्री सूक्त का जप एवं होम करता है, उसे निश्चय ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। श्रीदेवी की प्रसन्नता के लिये कमल, बेल, घी अथवा तिल की आहुति देनी चाहिये। प्रत्येक वेद में एक ही 'पुरुषसूक्त' मिलता है, जो सब कुछ देनेवाला है जो स्नान करके 'पुरुषसूक्त के एक-एक मन्त्र से भगवान् श्रीकृष्ण को एक-एक जलाञ्जलि और एक-एक फूल समर्पित करता है, वह पापरहित होकर दूसरोंके भी पापका नाश करनेवाला हो जाता है। स्नान करके इस सूक्तके एक-एक मन्त्र के साथ श्री विष्णु को फल समर्पित करके पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका भागी होता है। पुरुष सूक्त के जपसे महापातकों और उपपातकोंका नाश हो जाता है। कृच्छ्रव्रत करके शुद्ध हुआ मनुष्य स्नानपूर्वक 'पुरुषसूक्त का जप एवं होम करके सब कुछ पा लेता है।अठारह शान्तियोंमें समस्त उत्पातोंका उपसंहार करनेवाली अमृता, अभया और सौम्या-ये तीन शान्तियाँ सर्वोत्तम हैं। 'अमृता शान्ति' सर्वदैवत्या, 'अभया' ब्रह्मदैवत्या एवं 'सौम्या' सर्वदैवत्या है। इनमें से प्रत्येक शान्ति सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली है। भृगुश्रेष्ठ! 'अभया' शान्तिके लिये वरुण वृक्ष के मूल भाग की मणि बनानी चाहिये। 'अमृता' शान्तिके लिये दूर्वामूलकी मणि एवं सौम्या शान्ति के लिये शंख मणि धारण करे। इसके लिये उन उन शांति यों के देवताओं से सम्बद्ध मंत्रों को सिद्ध करके मणि बाँधनी चाहिये। ये शान्तियाँ दिव्य, आन्तरिक्ष एवं भौम उत्पातोंका शमन करनेवाली हैं। 'दिव्य', 'आन्तरिक्ष' और 'भौम'-यह तीन प्रकारका अद्भुत उत्पात बताया जाता है, सुनो। ग्रहों एवं नक्षत्रों की विकृति से होने वाले उत्पात 'दिव्य' कहलाते हैं अब 'आन्तरिक्ष' उत्पातका वर्णन सुनो। उल्कापात, दिग्दाह, परिवेश, सूर्यपर घेरा पड़ना, एवं विकारयुक्त वृष्टि-ये अन्तरिक्ष-सम्बन्धी उत्पात हैं। भूमिपर एवं जंगम प्राणियों से होने वाले उपद्रव तथा भूकम्प-ये भौम' उत्पात हैं।
इन त्रिविध उत्पात कि देखने के बाद एक सप्ताहके भीतर यदि वर्षा हो जाय तो वह 'अद्भुत' निष्फल हो जाता है। यदि तीन वर्षतक अद्भुत उत्पातकी शान्ति नहीं की गयी तो वह लोकके लिये भय कारक होता है। जब देवताओं की प्रतिमाएँ नाचती, काँपती, जलती, शब्द करती, रोती, पसीना बहाती या हँसती हैं, तब प्रतिमाओं के इस विकारकी शान्तिके लिये उनका पूजन एवं प्राजापत्य-होम करना चाहिये। जिस राष्ट्र में बिना जलाये ही घोर शब्द करती हुई आग जल उठती है और इन्धन डालनेपर भी प्रज्वलित नहीं होती, वह राष्ट्र राजाओंके द्वारा पीड़ित होता है। भृगुनन्दन! अग्नि-सम्बन्धी विकृतिकी शान्तिके लिये अग्रिदैवत्य-मन्त्र से हवन बताया गया है। जब वृक्ष असमय में ही फल देने लगे तथा दूध और रक्त बहावें तो वृक्ष जनित भौम-उत्पात होता है। वहाँ शिव की पूजा करके इस उत्पात की शान्ति करावे। अतिवृष्टि और अनावृष्टि-दोनों ही दुर्भिक्षाका कारण मानी गई है वर्षा-ऋतु के सिवा अन्य ऋतुओं में तीन दिनतक अनवरत वृष्टि होनेपर उसे भयजनक जानना चाहिये। पर्जन्य, चन्द्रमा एवं सूर्यके पूजनसे वृष्टि-सम्बन्धी वैकृत्य (उपद्रव)-का विनाश होता है। जिस नगरसे नदियाँ दूर हट जाती हैं या अत्यधिक समीप चली आती हैं और जिसके सरोवर एवं झरने सूख जाते हैं. वहाँ जलाशयोंके इस विकारको दूर करनेके लिये वरुणदेवता-सम्बन्धी मन्त्रका जप करना चाहिये।
जहाँ स्त्रियाँ असमय में प्रसव करे, समय पर प्रसव न करें, विकृत गर्भको जन्म दें या युग्म-संतान आदि उत्पन्न करें, वहाँ स्त्रियोंके प्रसव-सम्बन्धी वैकृत्यके निवारणार्थ साध्वी स्त्रियों और ब्राह्मण आदिका पूजन करे। जहाँ घोड़ी, हथिनी या गौ एक साथ दो बच्चोंको जनती हैं या विकारयुक्त विजातीय संतानको जन्म देती हैं, छः महीनों के भीतर प्राणत्याग कर देती हैं अथवा विकृत गर्भका प्रसव करती हैं, उस राष्ट्र को शत्रुमण्डल से भय होता है।
पशुके इस प्रसव-सम्बन्धी उत्पातकी शान्तिके उद्देश्यसे होम, जप एवं ब्राह्मणों का पूजन करना चाहिये। जब अयोग्य पशु सवारीमें आकर जुत जाते हैं, योग्य पशु यानका वहन नहीं करते हैं एवं आकाशमें तूर्यनाद होने लगता है, उस समय महान् भय उपस्थित होता है। जब वन्य पशु एवं पक्षी ग्राममें चले जाते हैं, ग्राम्य पशु वन में चले जाते हैं, स्थलचर जीव जलमें प्रवेश करते हैं, जलचर जीव स्थलपर चले जाते हैं, राजद्वारपर गीदड़ियाँ आ जाती हैं, मुर्गे प्रदोष काल में शब्द करें, सूर्योदय के समय गीदड़ियाँ रुदन करें, कबूतर घरमें घुस आएं मांसभोजी पक्षी सिर पर मँडराने लगें, साधारण मक्खी मधु बनाने लगें, कौए सबकी आँखों के सामने मैथुनमें प्रवृत्त हो जायेँ, दृढ़ प्रासाद, तोरण, उद्यान, द्वार, परकोटा और भवन अकारण ही गिरने लगें, तब राज्य में मृत्यु होती है जहाँ धूल या धुएँसे दशों दिशाएँ भर जाये, केतु का उदय, ग्रहण, सूर्य और चंद्रमा में छिद्र प्रकट होना-ये सब ग्रहों और नक्षत्रों के विकार हैं। ये विकार जहाँ प्रकट होते हैं, वहाँ भयकी सूचना देते हैं। जहाँ अग्नि प्रदीप्त न हो, जल से भरे हुए घड़े अकारण ही चूने लगें तो इन उत्पातो का फल मृत्यु, भय और महामारी आदि होते हैं। ब्राह्मणों और देवताओं की पूजा से तथा जप एवं होमसे इन उत्पातोंकी शान्ति होती है।
🌺 अब मैं तुम्हारे सम्मुख सदाशिव को करानेवाले स्नानोंका वर्णन करता हूँ। 🌺
घृत स्नान आयुकी वृद्धि करनेमें उत्तम है। गोमय से स्नान कराने पर लक्ष्मी प्राप्ति, गोमूत्र से स्नान करानेपर पाप-नाश, दुग्धसे स्नान करानेपर बलवृद्धि एवं दधि से स्नान कराने पर संपत्ति की वृद्धि होती है। कुशोदकसे स्नान कराने पर पापनाश, पंचगव्य से स्नान कराने पर समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति, शतमूलसे स्नान कराने पर सभी कामनाओंकी सिद्धि तथा गोशृङ्गके जलसे स्नान करानेपर पापोंकी शान्ति होती है। पलाश, बिल्वपत्र, कमल एवं कुशके जलसे स्नान कराना सर्वप्रद है। दो प्रकारकी हल्दी और मोथा मिश्रित जल से कराया गया स्नान राक्षसोंके विनाशके लिये उत्तम है। इतना ही नहीं, वह आयु, यश, धर्म और मेधाकी भी वृद्धि करनेवाला है। स्वर्णजलसे कराया गया स्नान मङ्गलकारी होता है। रजत और ताम्रजलसे कराये गये स्नानका भी यही फल है। रत्नमिश्रित जलसे स्नान कराने पर विजय, सब प्रकारके गन्धोंसे मिश्रित जलद्वारा स्रान कराने पर सौभाग्य, फलोदकसे स्नान करानेपर आरोग्य तथा धात्रीफलके जलसे स्नान करानेपर उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। तिल एवं श्वेत सर्षपके जलसे स्नान करानेपर लक्ष्मी, प्रियंगुजलसे स्नान करानेपर सौभाग्य, पद्म, उत्पल तथा कदम्बमिश्रित जलसे स्नान करानेपर लक्ष्मी एवं कला-वृक्ष के जलसे स्रान करानेपर बलकी प्राप्ति होती है। भगवान श्री विष्णु का स्नान सब स्नान में श्रेष्ठ है। समस्त कामनाओंके ईश्वर भगवान श्रीहरि ही हैं, अत: उनके पूजनसे ही मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
जो मनुष्य घृतमिश्रित दुग्धसे स्नान कराके श्री विष्णु का पूजन करता है, वह पित्त रोग का नाश कर देता है। भगवान श्रीहरि को पंचगव्य से स्नान करानेवाला वातरोगका नाश करता है। द्विस्नेह-द्रव्यसे स्नान कराके अतिशय श्रद्धापूर्वक उनका पूजन करनेवाला कफ-सम्बन्धी रोगों से मुक्त हो जाता है । घृत तैल एवं मधु द्वारा कराया गया स्नान ' त्ररिरस-स्नान' माना गया है, घृत और जलसे किया गया स्नान 'द्विस्नेह स्नान' है तथा घृत-तेल-मिश्रित जलका स्नान 'समल स्नान' है। मधु, ईखका रस और दूध-इन तीनोंसे मिश्रित जलद्वारा किया गया स्नान 'त्रिमधुर-स्नान' है। घृत, इक्षुरस तथा शहद यह ' त्ररिरस-स्नान' लक्ष्मी की प्राप्ति करानेवाला है कर्पूर, उशीर एवं चन्दन से किया गया अनुलेप 'त्रिशुक्ल' कहलाता है। चन्दन, अगुरु, कर्पूर, कस्तूरी एवं कुंकुम इन पांचों के मिश्रण से किया गया अनुलेपन यदि विष्णु को अर्पित किया जाय तो वह सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है कर्पूर, चन्दन एवं कुङ्कुम अथवा कस्तूरी, कपूर और चंदन यह 'त्रिसुगन्ध' समस्त कामनाओंको प्रदान करनेवाला है। जायफल, कर्पूर और चन्दन-ये 'शीतत्रय' माने गये हैं। पीला, सुग्गापंखी, शुक्ल, कृष्ण एवं लाल-ये पञ्च वर्ण कहे गये हैं | श्रीहरि की पूजा में उत्पल, कमल, जातीपुष्प तथा त्रिशीत उपयोगी होते हैं। कुङ्कुम, रक्त कमल और लाल उत्पल ये 'त्रिरक्त' कहे जाते हैं। श्री विष्णु का धूप-दीप आदिसे पूजन करनेपर मनुष्य को शांति की प्राप्ति होती है। चार हाथके चौकोर कुण्डमें आठ या सोलह ब्राह्मण तिल, घी और चावल से लक्षहोम या कोटिहोम करें। ग्रहों की पूजा करके गायत्री-मन्त्रसे उक्त होम करनेपर क्रमशः सब प्रकारकी शान्ति सुलभ होती है।