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24 / Apr / 2021


जन्म और मरण संबन्धीत सूतक का वर्णन भाग - 2

परदेशमें रहनेवाला पुरुष यदि अपने कुलमें किसीके जन्म या मरण होनेका समाचार सुने तो दस रातमें जितना समय शेष हो, उतने ही समय तक उसे अशौच  (सूतक) लगता है। यदि दिन व्यतीत होनेपर उसे उक्त समाचार का ज्ञान हो, तो वह तीन राततक अशौचयुक्त रहता है उसके बाद शुद्ध  हो जाता है ।  दशाह बीत जानेपर उक्त समाचार सुने तो तीन रातका अशौच प्राप्त होता है । वर्ष बीत जानेपर उक्त समाचार ज्ञात हो तो जलका स्पर्श करके ही मनुष्य शुद्ध हो जाता है। मामा, शिष्य, ऋत्विक् तथा बान्धवजनोंके मरनेपर एक दिन, एक रात और एक दिन का अशौच लगता है। मित्र, दामाद, पुत्रीके पुत्र, भानजे, साले और सालेके पुत्रके मरनेपर स्नानमात्र करनेका विधान है


दुर्भिक्ष (अकाल) पड़नेपर, समूचे राष्ट्रके ऊपर संकट आनेपर, आपत्ति-विपत्ति पड़नेपर तत्काल शुद्धि कही गयी है। यज्ञकर्ता, व्रत परायण, ब्रह्मचारी, दाता तथा ब्रह्मवेत्ताकी तत्काल ही शुद्धि होती है। दान, यज्ञ, विवाह, युद्ध तथा देशव्यापी विप्लव के समय भी शुद्धि ही बतायी गयी है। महामारी आदि उपद्रवमें मरे हुएका अशौच भी तत्काल ही निवृत्त हो जाता है। राजा, गौ तथा ब्राह्मण द्वारा मारे गये मनुष्यों की और आत्मघाती पुरुषों की मृत्यु होनेपर भी तत्काल ही शुद्धि कही गयी है। जो असाध्य रोगसे युक्त एवं स्वाध्यायमें भी असमर्थ है, उसके लिये भी तत्काल शुद्धिका ही विधान है। जो अत्यन्त वृद्ध है, जिसे शौचाशौचका भी ज्ञान नहीं रह गया है, वह यदि प्राण त्याग करता है तो उसका अशौच तीन दिनतक ही रहता । उसमें प्रथम दिन दाह , दूसरे दिन अस्थि संचय, तीसरे दिन जलदान तथा चौथे दिन श्राद्ध करना चाहिये।



 

जो स्त्री अथवा पुरुष अपमान, क्रोध, स्नेह, तिरस्कार या भय के कारण गलेमें बन्धन (फाँसी) लगाकर जो लोग पर्वतसे कूदकर, आगमें जलकर, या पानीमें डूबकर मरते हैं, किसी तरह प्राण त्याग देते हैं, उन्हें 'आत्मघाती' कहते हैं। वह आत्मघाती मनुष्य एक लाख वर्षतक अपवित्र नरकमें निवास करता है ।ऐसे आत्मघाती और पतित मनुष्य के मरने का अशौच नहीं लगता है। जो बिजली गिरनेसे या युद्ध में अस्त्रों के आयात से मरते हैं, उनके लिये भी यही बात है। यति (संन्यासी), ब्रती, ब्रह्मचारी, राजा, कारीगर और यज्ञ दीक्षित पुरुष तथा जो राजा की आज्ञा का पालन करनेवाले हैं। ऐसे लोगोंको भी अशौच नहीं प्राप्त होता है। ये यदि प्रेतकी शवयात्रामें गये हों तो भी स्नानमात्र कर लें। इतनेसे ही उनकी शुद्धि हो जाती है। मैथुन करनेपर और जलते हुए शव का धुआं लग जानेपर तत्काल स्नानका विधान है।




मरे हुए ब्राह्मण के शव को किस तरह भी शूद्र द्वारा न उठाया जाए। इसी तरह शूद्र के शव को भी ब्राह्मण द्वारा कदापि न उठवाये; क्योंकि वैसा करनेपर दोनोंको ही दोष लगता है।  जो स्त्रियां पाखंड का आश्रय लेने वाली , तथा पति घातिनी हैं, उनकी मृत्यु पर अशौच नहीं लगता और न उन्हें जलाञ्जलि पानेका ही अधिकार होता है। पिता-माता आदि की मृत्यु होने का समाचार एक वर्ष बीत जानेपर भी प्राप्त हो तो सवस्त्र स्नान करके उपवास करे और विधिपूर्वक प्रेतकार्य (जलदान आदि) सम्पन्न करे। जो कोई पुरुष जिस किसी तरह भी असपिण्ड (कुलरहित)शवको उठाकर ले जाय, वह वस्त्रसहित स्नान करके अग्निका स्पर्श करे और घी खा ले, इससे उसकी शुद्धि हो जाती है। यदि उस कुटुम्बका वह अन्न खाता है तो दस दिनमें ही उसकी शुद्धि होती है। यदि मृतकके घरवालोंका अन्र न खाकर उनके घरमें निवास भी न करे तो उसकी एक ही दिनमें शुद्धि हो जायगी।


शवका दाह-संस्कार करके जब घर लौटे तो मनको वशमें रखकर द्वारपर खड़ा हो दाँतसे नीम की पत्तियां चबाये। फिर आचमन करके अग्नि, जल, गोबर और पीली सरसोंका स्पर्श करे। तत्पश्चात् पहले पत्थरपर पैर रखकर धीरे धीरे घरमें प्रवेश करे। उस दिनसे बन्धु-बान्धवोंको क्षार नमक नहीं खाना चाहिए, मांस त्याग देना चाहिये। सबको भूमिपर शयन करना चाहिये वे स्नान करके खरीदनेसे प्राप्त हुए अन्नको खाकर रहें। जो प्रारम्भमें दाह-संस्कार करे, उसे दस दिनोंतक सब कार्य करना चाहिये। दोनों ही प्रकारके अशौचोंमें दस दिनोंतक उस कुलका अन्न नहीं खाया जाता है। अशौचमें दान आदिका भी अधिकार नहीं रहता। अशौचमें किसीके यहाँ भोजन करने पर प्रायश्चित करना चाहिये। अनजान में भोजन करनेपर पातक नहीं लगता, जानबूझकर खानेवालेको एक दिनका अशौच प्राप्त होता है।


पुष्कर कहते हैं- मृतकका दाह-संस्कार हुआ हो या नहीं, यदि श्री हरि का स्मरण किया जाय तो उससे उसको स्वर्ग और मोक्ष-दोनों की प्राप्ति हो सकती है। मृतक की हड्डियों को गंगा जीके जलमें डालनेसे उस प्रेत (मृत व्यक्ति)-का अभ्युदय होता है। मनुष्य की हड्डी जब तक गंगा जीके जलमें स्थित रहती है, तबतक उसका स्वर्गलोक में निवास होता है। आत्मत्यागी तथा पतित मनुष्यों के लिये यद्यपि पिण्डोदक-क्रियाका विधान नहीं है तथापि गङ्गाजीके जलमें उनकी हड्डियों का डांस भी उनके लिये हितकारी ही है। उनके उद्देश्य से दिया हुआ अन्न और जल आकाश में लीन हो जाता है। पतित प्रेतके प्रति महान् अनुग्रह करके उसके लिये 'नारायण-बलि' करनी चाहिये। इससे वह उस अनुग्रहका फल भोगता है। 

कमल के सदृश नेत्रवाले भगवान नारायण अविनाशी हैं, अतः उन्हें जो कुछ अर्पण किया जाता है, उसका नाश नहीं होता। भगवान जनार्दन जीव का पतनसे त्राण (उद्धार) करते हैं, इसलिये वे ही दानके सर्वोत्तम पात्र हैं। निश्चय ही नीचे गिरने वाले जीवों को भी भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले एकमात्र श्रीहरि ही हैं। 'सम्पूर्ण जगत्के लोग एक-न-एक दिन मरनेवाले हैं'-यह विचार कर सदा अपने सच्चे सहायक धर्म का अनुष्ठान करना चाहिए। पतिव्रता पत्नी को छोड़कर दूसरा कोई बन्धु-बान्धव मरकर भी मरे हुए मनुष्य के साथ नहीं जा सकता; क्योंकि यमलोक का मार्ग सबके लिये अलग अलग है। जीव कहीं भी क्यों न जाय, एकमात्र धर्म ही उसके साथ जाता है। जो काम कल करना है, उसे आज ही कर ले; जिसे दोपहर बाद करना है, उसे पहले ही पहरमें कर ले; क्योंकि मृत्यु इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका कार्य पूरा हो गया है या नहीं? मनुष्य खेत-बारी, बाजार-हाट तथा घर-द्वारमें फँसा होता है, उसका मन अन्यत्र लगा होता है; इसी दशामें जैसे असावधान भेड़को सहसा भेड़िया आकर उठा ले जाय, वैसे ही मृत्यु उसे लेकर चल देती है। काल के लिये न तो कोई प्रिय है, न द्वेषका पात्र* आयुष्य तथा प्रारब्धकर्म क्षीण होनेपर वह हठात् जीवको हर ले जाता है । जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणों से घायल होनेपर भी नहीं मरता तथा जिसका काल आ पहुँचा है, वह कुशके अग्रभागसे ही छू जाय तो भी जीवित नहीं रहता। काल निरन्तर गतिशील है, उसमें कभी स्थिरता नहीं आती; इसलिये कर्म अवश्य करें।




जो मृत्यु से ग्रसित है, उसे औषध और मन्त्र आदि नहीं बचा सकते । जैसे बछड़ा गौओंके झुंडमें भी अपनी माँ के पास पहुंच जाता है, उसी प्रकार पूर्वजन्मका किया हुआ कर्म जन्मान्तरमें भी कर्ताको अवश्य ही प्राप्त होता है। इस जगत्का आदि और अन्त अव्यक्त है, केवल मध्यकी अवस्था ही व्यक्त होती है। जैसे जीवन के इस शरीर में कुमार तथा यौवन आदि अवस्थाएँ क्रमशः आती रहती हैं, उसी प्रकार मृत्यु के पश्चात उसे दूसरे शरीर की भी प्राप्ति होती है जैसे मनुष्य (पुराने वस्त्रको त्यागकर) दूसरे नूतन वस्त्रको धारण करता है, उसी प्रकार जीवन एक शरीर को छोड़कर दूसरेको ग्रहण करता है। देहधारी जीवात्मा सदा अवध्य है, वह कभी मरता नहीं; अत: मृत्यु के लिये शोक त्याग देना चाहिये।