धर्म क्या है उसका वर्णन
सुकेशि बोला-धर्म के लक्षण (परिचय) क्या है? उसमें कौन-से आचरण एवं सत्कर्म होते हैं, जिनका आश्रय लेकर देवादि कभी दुखी नहीं होते। आप उसका वर्णन करें।
ऋषियों ने कहा-सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, विज्ञान और विष्णु पूजा में रति-ये देवताओं के शाश्वत परम धर्म हैं। बाहुबल, ईर्ष्या भाव, युद्धकार्य, नीतिशास्त्र का ज्ञान और हर-भक्ति-ये दैत्योंके धर्म कहे गये हैं ।श्रेष्ठ योगसाधन, वेदाध्ययन, ब्रह्म ज्ञान तथा विष्णु और शिव-इन दोनोंमें अचल भक्ति-ये सब सिद्धों के धर्म कहे गये हैं। ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्य का ज्ञान तथा सरस्वतीके प्रति निश्चल भक्ति-ये गंधर्व के धर्म कहे जाते हैं। अद्भुत विद्या को धारण करना, विज्ञान, पुरुषार्थ की बुद्धि और भवानीके प्रति भक्ति-ये विद्याधर के धर्म हैं। गन्धर्व विद्या का ज्ञान, सूर्यके प्रति अटल भक्ति और सभी शिल्प-कलाओंमें कुशलता - ये किम्पुरुषोंके धर्म माने जाते हैं। ब्रह्मचर्य, अमानित्व (अभिमानसे बचना) योगाभ्यास में दृढ़ प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमण ये पितरोंके धर्म कहलाते हैं । ब्रह्मचर्य, नियम हार, जप, आत्मज्ञान और नियमानुसार धर्म ज्ञान -ये ऋषियों के धर्म कहे जाते हैं। स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, उदारता, विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेन्द्रियता, शौच, माङ्गल्य तथा विष्णु, शिव, सूर्य और दुर्गा देवी में भक्ति-ये मानवोंके (सामान्य) धर्म हैं। धन का स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिव जी की पूजा, अहंकार और सौम्यता-ये गुह्योंके धर्म हैं। परस्त्रीगमन, दूसरे के धन की लोलुपता, वेदाध्ययन और शिव भक्ति-ये राक्षसों के धर्म कहे गये हैं। अविवेक, अज्ञात, अपवित्रता, असत्यता एवं सदा मांस-भक्षण प्रवृत्ति-ये पिशाचोंके धर्म हैं ।ये ही बारह योनियाँ हैं। पितामह ब्रह्माने उनके ये बारह गति देनेवाले धर्म कहे हैं।
सुकेशिने कहा- आप लोगोंने जो शाश्वत एवं अव्यय बारह धर्म बताये हैं, उनमें मनुष्योंके धर्मोको एक बार पुनः कहनेकी कृपा करें।
ॠषियों ने कहा-सुकेशि जैसे देवताओं में श्री विष्णु, पर्वतों में हिमालय, शस्त्रों में सुदर्शन, पक्षियों में गरुड़, महान् सर्पोमें अनन्तनाग तथा भूतों में पृथ्वी श्रेष्ठ है; नदियोंमें गङ्गा, जल में उत्पन्न होनेवालोंमें कमल, देव-शत्रु-दैत्योंमें महादेवके चरणोंका भक्त और क्षेत्रोंमें कुरु ,जंगल और तीर्थों में पृथूदक है; जलाशयोंमें उत्तर मानस, पवित्र वनों में नंदनवन, लोकों में ब्रह्मलोक, धर्म-कार्योंमें सत्य प्रधान है तथा यज्ञ में अश्वमेध, छूनेयोग्य (स्पर्शसुखवाले) पदार्थों में पुत्र सुखदायक है; तपस्वियोंमें अगस्त्य, आगम शास्त्रों में वेद श्रेष्ठ है; पुराण में मत्स्य पुराण, संहिताओं में स्वयम्भू संहिता, स्मृतियों में मनुस्मृति, तिथियों में अमावस्या और विषुवों अर्थात् मेष और तुला राशि में सूर्य के संक्रमण संक्रांति के अवसर पर किया गया दान श्रेष्ठ होता है;। तेजस्वियोंमें सूर्य, नक्षत्र में चन्द्रमा, जलाशयोंमें समुद्र, अच्छे राक्षसों में आप(सुकेशि) और निश्चेष्ट करनेवाले पाशों में नागपाश श्रेष्ठ है एवं धानों में शालि, दो पैरवालोंमें ब्राह्मण, चौपायोंमें गाय, जंगली जानवरों में सिंह, फूलोंमें जाती (चमेली), नगरोंमे काशी, नारियोंमें रम्भा और आश्रमों में गृहस्थ श्रेष्ठ हैं; सप्तपुरियों में द्वारका, समस्त देशों में मध्यदेश, फलों में आम, मुकुलोंमें अशोक और जड़ी-बूटियोंमें हरीतकी सर्वश्रेष्ठ है; हे निशाचर! जैसे मूलोंमें कंद, रोग में अपच, श्वेत वस्तुओं में दुग्ध और वस्त्रों में रुई के कपड़े श्रेष्ठ है।कला में गणित का जानना, विज्ञान में इन्द्रजाल, शाकोंमें मकोय, रसोंमें नमक, ऊँचे पेड़ों में ताड़, कमल-सरोवर में पंपासर, बनैले जीवों में भालू, वृक्षों में वट, ज्ञानियोंमें महादेव वरिष्ठ हैं; सतियों में हिमालय की पुत्री पार्वती, गौओं में काली गाय, बैलोंमें नील रंगका बैल, सभी दुःसह कठिन एवं भयंकर नरकोंमें नृपातन वैतरणी प्रधान है, उसी प्रकार हे निशाचरेन्द्र! मनुष्य में धर्म परायण और धर्म निष्ठ मनुष्य श्रेष्ठ है।
पापियों के कृतघ्न प्रधानतम पापी होता है ब्रम्ह-हत्या एवं गौहत्या आदि पापों की निष्कृति तो हो जाती है, पर दुराचारी पापी एवं मित्र द्रोही कृतघ्नका करोड़ों वर्षोंमें भी निस्तार नहीं होता। इसलिए श्रेष्ठ मनुष्य को धर्म का आचरण करना चाहिए।
सुनो। सुकेशिन्! सदाचार का मूल धर्म है, धन इसकी शाखा है, काम (मनोरथ) इसका पुष्प है एवं मोक्ष इसका फल है-ऐसे विचार रूपी वृक्ष का जो सेवन करता है, वह पुण्य भोगी बन जाता है। मनुष्य को ब्राह्ममुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम श्रेष्ठ देवों एवं महर्षियोंका स्मरण करना चाहिये तथा देवाधिदेव महादेव द्वारा कथित प्रभातकालीन मङ्गल स्तोत्र का पाठ करना चाहिये।
ऋषिगण बोले-राक्षस श्रेष्ठ! महादेव जी द्वारा वर्णित 'सुप्रभात' स्तोत्रको सुनो। इसको सुनने, स्मरण करने और पढ़ने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रः सह भानुजेन कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
भृगुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहः सगौतमः।
रैभ्यो मरीचिश्च्यवनो ऋभुश्च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
सनत्कुमारः सनक: सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौ च।
सप्त स्वराः सप्त रसातलाश्च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥
पृथ्वी सुगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शश्च वायुचलनः सतेजाः।
नमः सशब्दं महता सहैव यच्छन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥
सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवराश्च सप्त।
भूरादि कृत्वा भुवनानि सप्त ददन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥
इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या।
दुःस्व्णनाशोऽनघ सुप्रभातम्।।
स्तोत्र का भाषांतर
(स्तुति इस प्रकार है- 'ब्रह्मा, विष्णु शंकर ये देवता तथा सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध बृहस्पति, शुक्र और शनैश्चर ग्रह-ये सभी मेरे प्रात:काल को मङ्गलमय बनायें। भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अंगिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन तथा ऋभु-ये सभी (ऋषि) मेरे प्रातःकाल को मङ्गलमय बनायें। सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुरि, पिङ्गल, सातों स्वर एवं सातों रसातल-ये सभी मेरे प्रातःकाल को मङ्गलमय बनाएं ।'गन्धगुणवाली पृथ्वी, रसगुणवाला जल, स्पर्शगुणवाली वायु, तेजोगुणवाली अग्रि, शब्दगुणवाला आकाश एवं महत्तत्व-ये सभी मेरे प्रातःकाल क मङ्गलमय बनायें। सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षि, सातों श्रेष्ठ द्वीप और भू आदि सातों लोक-ये सभी प्रातःकाल में मुझे मङ्गल प्रदान करें।' इस प्रकार प्रात:कालमें परम पवित्र सुप्रभात स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़े, स्मरण करे अथवा सुने। निष्पाप! ऐसा करनेसे भगवानकी कृपासे निश्चय ही उसके दुःस्वप्न का नाश होता है तथा सुन्दर प्रभात होता है।)
उसके बाद उठकर धर्म तथा अर्थके विषयमें चिन्तन करे और शैय्या त्यागे।
रजस्वला स्त्री, कुत्ता, नग्न (दिगम्बर साधु), प्रसूता स्त्री, चाण्डाल और शववाहकोंका स्पर्श हो जाने पर अपवित्र हुए व्यक्ति को पवित्र होनेके लिये स्नान करना चाहिये। मज्जा युक्त हड्डी को छू जानेपर वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये, किंतु सूखी हड्डी का स्पर्श होनेपर आचमन करने, गो-स्पर्श तथा सूर्य दर्शन करने में से ही शुद्धि हो जाती है। विष्ठा, रक्त, थूक एवं उबटनका उल्लंघन नहीं करना चाहिए । देव-निर्मित झीलों में, ताल-तलैयों और नदियों में स्नान करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुष बाग-बगीचों में असमय में कभी न ठहरे। लोगोंसे द्वेष रखनेवाले व्यक्ति तथा पति-पुत्र से रहित स्त्री से वार्तालाप नहीं करना चाहिये। देवता, पितरों, भले शास्त्रों (पुराण, धर्मशास्त्र, रामायण आदि), यज्ञ एवं वेदादिके निन्दकोंका स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करनेपर मनुष्य अपवित्र हो जाता है, वह सूर्यदर्शन करनेपर शुद्ध होता है। उसकी शुद्धि भगवान् सूर्यके समक्ष उपस्थान करके अपने किये हुए स्पर्श और वार्तालाप कर्मके त्याग तथा पश्चात्ताप करनेसे होती है। सूतिक, नपुंसक, बिलाव, चूहा, कुत्ते, मुर्गे, पतित, नग्न (विधर्मी) समाज से बहिष्कृत और जो चांडाल आदि अधम प्राणी हैं उनके यहाँ भोजन नहीं करना चाहिये।
सुकेशि बोला- ॠषियो! आप लोगों ने जिन सूतिक आदिका अन्न अभक्ष्य कहा है, मैं उनके लक्षण विस्तारसे सुनना चाहता हूँ।
ऋषियों ने कहा- सुकेशि! अन्य ब्राह्मण के साथ ब्राह्मणी के व्यभिचरित होने पर उन दोनोंको ही ' सूतिक कहा जाता है। उन दोनोंका अन्न निन्दित है उचित समय पर हवन, स्नान और दान न करनेवाला तथा पितरों एवं देवताओं की पूजा से रहित व्यक्तिको ही यहाँ 'षष्ढ' या नपुंसक कहा गया है। दम्भके लिये जप, तप और यज्ञ करनेवाले तथा परलोकार्थ उद्योग न करनेवाले व्यक्तिको यहाँ 'मार्जार' या 'बिलाव" कहा गया है। ऐश्वर्य रहते हुए भोग, दान एवं हवन न करनेवालेको 'आखु' (चूहा) कहते हैं। उसका अन्न खानेपर मनुष्य कृच्छ व्रत करनेसे शुद्ध होता है।दूसरोंका मर्म भेदन करते हुए बातचीत करनेवाले तथा दूसरेके गुणोंसे द्वेष करनेवालेको ' श्वान' या 'कुत्ता कहा गया है। सभामें आगत व्यक्तियोंमें जो सभ्य व्यक्ति पक्षपात करता है, उसे देवताओं ने 'कुक्कुट'
(मुर्गा) कहा है; उसका भी अन्न निन्दित है। विपत्तिकालके अतिरिक्त अन्य समय में अपना धर्म छोड़कर दूसरेका धर्म ग्रहण करनेवालेको विद्वानोंने 'पतित' कहा है। देव त्यागी, पितृ त्यागी, गुरु भक्ति से विमुख तथा गो, ब्राह्मण एवं स्त्री की हत्या करनेवालेको 'अपवित्र' कहा जाता है। जिनके कुलमें वेद, शास्त्र एवं व्रत नहीं हैं, उन्हें सज्जन लोग 'नग्न' कहते हैं उनका अन्न निन्दित है। आशा रखनेवालोंको न देनेवाला, दाताको मना करनेवाला तथा शरणागतका परित्याग करनेवाला अधम मनुष्य 'चाण्डाल' कहा जाता है। बान्धवों, साधुओं एवं ब्राह्मणों से त्यागा गया तथा कुण्ड (पति जीवित रहनेपर परपुरुषसे उत्पन्न पुत्र)-के यहाँ अन्न खानेवालेको चान्द्रायण व्रत करना चाहिये।
नित्य और नैमित्तिक कर्म न करनेवाले व्यक्तिका अन्न खानेपर मनुष्य तीन रात तक उपवास करनेसे शुद्ध होता है। निषाद (मल्लाह), वेश्या, वैद्य तथा कृपणका अन्न खानेपर भी मनुष्य तीन दिन उपवास करनेपर शुद्ध होता है। घरमें जन्म या मृत्यु होनेपर नित्यकर्म रुक जाते हैं, किंतु नैमित्तिक कर्म कभी बंद नहीं करना चाहिये। धर्मपूर्वक धनार्जन एवं यथाशक्ति यज्ञ करना चाहिये। मनुष्य को किस कार्य करने से कर्त्ता की आत्मा निन्दित न हो एवं जो कार्य बड़े लोगोंसे छिपाने योग्य न हो ऐसा कार्य निःशंक (आसक्तिरहित) होकर करना चाहिये। इस प्रकारके आचरण करनेवाले पुरुषके गृहस्थ होनेपर भी उसे धर्म, अर्थ एवं कामकी प्राप्ति होती है तथा यह व्यक्ति इस लोक और परलोक में कल्याण का भागी होता है ।
अपने वर्ण और आश्रमके लिये विहित धर्मों का इस लोकमें त्याग नहीं करना चाहिये। जो इनका त्याग करता है, उसपर सूर्य भगवान् क्रुद्ध होते हैं। सुकेशि ! भगवान् भास्कर क्रुद्ध होकर उस मनुष्य को रोगवृद्धि एवं उसके कुलका नाश करनेके लिये प्रयत्न करते हैं। अतः मनुष्य स्वधर्मका न तो त्याग करे और न अपने वंश की हानि होने दे ।