कर्मविपाक एवं पाप मुक्ति के उपाय का वर्णन
नारदजी कहते हैं-'यशस्विन्! सभी प्राणियों से सम्बद्ध कर्मफलों (सुख-दुःखों)-के विषयमें जाननेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है। महातपा! मैं उसे सुनना चाहता हूँ, कृपया उसे कहें। जो मनुष्य दुःख और तापसे संतप्त होकर सुखके लिये कठोर तपस्या तो करते हैं, पर उनके मनोरथ पूर्ण होते नहीं दीखते; वे सब प्रकारके सांसारिक प्रिय तथा अप्रिय को त्यागकर सुखके लिये अनेक व्रत एवं उपायका आचरण करते हैं, फिर भी सफल नहीं होते हैं, किसी-न-किसी प्रकार विफल कर दिये जाते हैं। लोकमें यह श्रुति प्रसिद्ध है कि धर्मके आचरणसे कल्याण होता है, पर देखा यह जाता है कि भलीभाँति कठोर तप करनेवाले भी क्लेश के भागी बन जाते हैं। यह क्यों? कौन इस (उद्भिज, स्वदेज, अण्डज और जरायुज) चार प्रकारके भूतग्रामवाले जगत्का संचालन करता है? धर्मात्मन्! कौन किस द्वेषके कारण मनुष्य की बुद्धि को पाप की ओर प्रेरित कर देता है? वह कौन है, जो इस लोकमें सुख तथा अत्यन्त कठोर दुःख भी उत्पन्न करता है?
नारद जी के इस प्रकार कहनेपर महामना धर्मराजने कहा-'आपने जो यह पुण्यमय प्रश्न पूछा है, मैं उसका उत्तर देता हूँ, आप उसे ध्यान देकर सुनें। मुनिवर! इस संसारमें न कोई कर्ता दीखता है और न करनेकी प्रेरणा देनेवाला ही दृष्टिगोचर होता है। जिसमें कर्म प्रतिष्ठित है-जिसके अधीन कर्म है, जिसके नामका कीर्तन होता है, जिससे जगत् आदेशित होता है-प्रेरणा पाता है तथा जो कार्यका सम्पादन करता है, उसके विषयमें कहता हूँ, सुनिये। ब्रह्मन्! एक समय इस दिव्य सभामें बहुतसे ब्रह्मर्षि विराजमान थे। वहाँ जो (विचार-विमर्श हुआ और) मैंने जैसा देखा सुना, उसे ही कहता हूँ। तात!
मानव जिसे अपनी शक्तिसे स्वयं करता है, वही उसका स्वकर्म प्रारब्ध बनकर (परिणाम रूप में) भोगने के लिये उसके सामने आ जाता है, चाहे वह सुकृत हो या दुष्कृत-सुख देनेवाला हो या दुःख देनेवाला जो संसारके थपेड़ों (दुःखादि द्वन्द्वोंसे) पीड़ित हों, उन्हें चाहिये कि अपनेसे अपना उद्धार करें, क्योंकि मनुष्य अपने-आप ही अपना शत्रु और बंधु है। जीव अपने-आपका पहलेका किया हुआ कर्म ही निश्चित रूप से इस संसारमें सैकड़ों योनियों में जन्म लेकर भोगता है। यह संसार सर्वथा सत्य है-ऐसी धारणा बन जानेके कारण वह आवागमनमें सर्वत्र भटकता है। प्राणी जो कुछ कर्म करता जाता है, वह उसके लिये संचित हो जाता है। फिर पुरुषका पाप-कर्म जैसे-जैसे क्षीण होता जाता है, वैसे-वैसे ही उसे शुभ बुद्धि प्राप्त होती जाती है।
दोषयुक्त व्यक्ति शरीरधारी होकर संसारमें जन्म पाता है। जगत्में गिरे हुए प्राणियों के बुरे कर्म का अंत हो जानेपर शुद्ध बुद्धि या ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। प्राणीको पूर्वशरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली शुभ अथवा अशुभ बुद्धि प्राप्त होती है। पुरुषके स्वयं उपार्जित किये हुए दुष्कृत एवं सुकृत दूसरे जन्ममें अनुरूप सहायक बनते हैं। पापका अन्त होते ही क्लेश शान्त हो जाता है। फलस्वरूप प्राणी शुभ कर्म में लग जाता है। इस प्रकार मनुष्य जब सत्कर्मका फल शुभ और दुष्कर्मका फल अशुभ भोग लेता है, तब उसके विस्तृत कर्म में निर्मलता आ जाती है और समाज में उसकी प्रतिष्ठा होने लगती है । शुभ कर्मों के फलस्वरूप उसे स्वर्ग मिलता तथा अशुभ कर्मों से वह नरकमें जाता है। वस्तु न तो दूसरा कोई किसी दूसरेको कुछ देता है और न कोई किसीका कुछ छीनता ही है।
नारद ने पूछा-यदि ऐसा ही नियम है कि अपना ही किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म सामने आता है और शुभसे अभ्युदय तथा अशुभसे ह्रास होता है तो प्राणी मन, वाणी, कर्म या तपस्या-इनमेंसे किसकी सहायता ले, जिससे वह इस संसाररूपी क्लेशसे बच सके, आप उसे बतानेकी कृपा कीजिये।
यमराज ने कहा-मुनिवर! यह प्रसङ्ग अशुभोंको भी शुभ बनानेवाला, परम पवित्र, पुण्यस्वरूप तथा पाप एवं दोषका सदा संहारक है। अब मैं उन जगत स्रष्टा जगदीश्वर की, जिनकी इच्छासे संसार चलता है, प्रणामकर आपके सामने इसका सम्यक् प्रकारसे वर्णन करता हूँ । चर और अचर सम्पूर्ण प्राणियों से सम्पन्न इस त्रिलोकका जिन्होंने सृजन किया है, वे आदि, मध्य एवं अन्तसे रहित हैं देवता और दानव किन्हींमें यह शक्ति नहीं है कि उन्हें जान सकें। जो समस्त प्राणियों में समान दृष्टि रखता है, वह वेद-तत्त्वको जाननेवाला सभी पापों से मुक्त जाता है। जिसकी आत्मा वशमें है, जिसके मन में सदा शान्ति विराजती है तथा जो ज्ञानी एवं सर्वज्ञ है, वह पापों से मुक्त हो जाता है। धर्म का सार अर्थ एवं प्रकृति तथा पुरुषके विषयमें जिसकी पूर्ण जानकारी है अथवा जान लेनेपर जो पुनः प्रमाद नहीं कर बैठता, उसीको सनातनपद सुलभ होता है। गुण, अवगुण, क्षय एवं अक्षयको जो भलीभाँति जानता है तथा ध्यानके प्रभावसे जिसका अज्ञान नष्ट हो गया है, वह पापों से मुक्त हो जाता है। जो संसारके सभी आकर्षणों एवं प्रलोभनोंकी ओरसे निराश होकर शुद्ध जीवन व्यतीत करता है तथा इष्ट वस्तुओं में जिसका मन नहीं लुभाता एवं आत्मा को संयम में रखकर प्राणोंका त्याग करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
अपने इष्टदेवमें जिसकी श्रद्धा है, जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली है, जो दूसरे की सम्पत्ति नहीं लेना चाहता एवं किसीसे द्वेष नहीं करता, वह मनुष्य सभी पापों से छूट जाता है। जो गुरुकी सेवामें सदा संलग्न रहता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता है तथा जो नीच वृत्ति का आचरण नहीं करता, वह मनुष्य सभी पापों से छूट जाता है। जो प्रशस्त धर्म-कर्मों का आचरण करता है और निन्दित कर्मो से दूर रहता है, वह सभी पापों से छूट जाता है। जो अपने अन्तःकरण को परम शुद्ध करके तीर्थों में भ्रमण करता है तथा दुराचरणसे सदा दूर रहता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य ब्राह्मण को देखकर भक्ति भाव से भर उठता और समीप जाकर प्रणाम करता है, वह भी सब पापों से छूट जाता है।
नारद जी बोले-परंतप! जो सम्पूर्ण प्राणियों के लिये कल्याणप्रद, हितकर एवं परम उपयोगी है, उसका वर्णन आपके द्वारा भलीभाँति सम्पन्न हो गया। प्रभो! तत्त्वार्थदर्शी व्यक्तियोंको सम्यक् प्रकारसे इसका पालन अवश्य करना चाहिये। आपकी कृपा से मेरा संदेह दूर हो गया। महाभाग!
अब आप लोग की अपेक्षा कोई छोटा उपाय जो पाप को दूर कर सके, उसे मुझे बतानेकी कृपा कीजिए; क्योंकि आप लोग धर्म से सम्बद्ध साधन पहले कह चुके हैं। पापको दूर करना महान् कठिन कार्य है। अतः कोई दूसरा ऐसा साधन बतायें जिससे जगत्में सुखप्राप्तिका लक्ष्य सिद्ध करनेके लिये अल्प प्रयास करना पड़े। इस लोक अथवा परलोकमें भी जो आत्मजयी व्यक्ति हैं तथा अनेक प्रकारके गुणोंकी जिनमें अधिकता है, वे सज्जन नित्य जिस साधनको काममें लेते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। महान् तपस्वी प्रभो! अनेक योनियों में प्राणियों की उत्पत्ति होती है और उनसे अशुभ कर्म बने रहते हैं। अत: उनको दूर करनेके लिये कोई सरल सुगम उपाय हो तो बतायें।
यमराजने कहा-गौओंकी बड़ी महिमा है। वे परम पवित्र, मङ्गलमयी एवं देवताओं की भी देवता हैं। उनकी सेवा करनेवाला पापोंसे मुक्त हो जाता है। शुभ मुहूर्त में उनके पञ्चगव्यके पानसे मनुष्य तत्क्षण पापों से मुक्त हो जाता है। उनकी पूंछ से गिरते जलको जो सिरपर चढ़ाता है, वह धन्य हो जाता है। उनको प्रणाम करनेवाला भी सभी तीर्थों का फल प्राप्तकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसलिये सर्वसाधारणको गौकी सेवा अवश्य करनी चाहिये। उदयकालीन सूर्य, चंद्र, गुरु, मंगल, बुध, शुक्र और शनैश्रर सभी ग्रह, अरुंधती,तथा सभी सप्तर्षियों की वैदिक विधिके अनुसार पूजा करनी चाहिये। वैसे ही दहीसे मिला हुआ अक्षत उन्हें भी अर्पित करनेका विधान है। साथ ही मनको एकाग्र करके हाथ जोड़े हुए जो मानव उन्हें प्रणाम करता है, उसके सम्पूर्ण पाप उसी क्षण अवश्य नष्ट हो जाते हैं। जो शूद्र व्यक्ति ब्राह्मण की सेवा करता, उन्हें तृप्त करता तथा भक्ति के साथ यत्न पूर्वक प्रणाम करता है, वह पापों से शीघ्र मुक्त हो जाता है। विषुव योग में अर्थात् जिस दिन रात और दिनका मान बराबर हो उस दिन जो पवित्र होकर दूध का दान करता है, उसका जन्मभरका किया हुआ पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य पूर्वाग्रह कुशा बिछाकर उसपर वृषभ को खड़ा करके दान देता है और ब्राह्मणों को साथ लेकर उसे प्रणाम करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूट जाता है ।
पूर्व की ओर बहने वाली नदी में सव्य होकर प्रदक्षिणक्रमसे विधिवत् अभिषेक करनेपर मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है। जो ब्राह्मण पवित्र होकर प्रसन्नतापूर्वक दक्षिणावर्ती शंख से हाथ में जल लेकर उसे सिरपर धारण करता है, उसके जन्मभरके किये पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मचारी मनुष्य का कर्तव्य है कि पूर्वकी ओर धारा बहानेवाली नदीमें जाय और नाभिमात्र जलमें खड़ा होकर स्नान करे। फिर काले तिलसे मिश्रित सात अञ्जलि जलसे तर्पण करे। साथ ही तीन बार प्राणायाम करना चाहिये। फलस्वरूप इसके जीवनपर्यन्तके पाप उसी क्षण नष्ट हो जाते है। जो मनुष्य कमल के छिद्र रहित पत्ते में जल रखकर सम्पूर्ण रत्नोंके सहित उससे तीन बार स्नान करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। मुने! मैं आपसे एक दूसरे अत्यन्त गोपनीय उपायका वर्णन करता हूँ। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी तिथि के व्रत से भुक्ति और मुक्ति-ये दोनों सुलभ हो जाती हैं।
मुनिवर! वह भगवान विष्णु के व्यक्त और अव्यक्त रूपकी मूर्ति है, जो मर्त्यलोकमें आयी है। इसकी उपासना करनेवालेके करोड़ों जन्मोंके अशुभ नष्ट हो जाते हैं। प्राचीन समयकी बात है- भगवान श्री हरि वराह के रूप में पधारे थे। ऐसे अवसरपर सम्पूर्ण संसारके कल्याणके विचारसे पृथ्वीदेवीने एकादशीको ही हृदयमें रखकर पूछा था।
धरणीने कहा-प्रभो! यह कलयुग प्रायः सभीके लिये भयानक है। इसमें मनुष्य सदा पापमें ही संलग्न रहते हैं। गुरु, ब्राह्मण का धन हड़प लेना और उनका वधतक लोगोंके लिये साधारण-सी बात हो जाती है। भगवान! कलयुग के लोग गुरु, मित्र और स्वामीके प्रति वैर रखनेमें तत्पर रहते हैं। परायी स्त्री से अनुचित सम्बन्ध करनेमें भी वे लोक-परलोकका भय नहीं करते। सुरेश्वर! दूसरेकी सम्पत्तिपर अधिकार जमाना, अभक्ष्य-भक्षण कर लेना तथा देवता एवं ब्राह्मणों की निंदा करना उनका स्वभाव बन जाता है। प्रायः कलयुग के लोग दाम्भिक एवं मर्यादाहीन होते हैं। कुछ लोग तो अनीश्वरवादी तक बन जाते हैं। इसमें मनुष्य निन्दित दान लेने और अगम्यागमनमें रुचि रखनेवाले होते हैं। विभो! वे ये तथा इनके अतिरिक्त भी अनेक पाप करते हैं, उनका श्रेय कैसे हो?
भगवान वराह ने उत्तर दिया-भगवान विष्णु- की सर्वोत्कृष्ट शक्ति ने कलयुग के नाना प्रकारके घोर पापोंमें रत मनुष्य के कल्याण के लिये ही एकादशी का रूप धारण किया था। इसलिये सभी मासों के दोनों पक्षों की एकादशी का व्रत करना चाहिये। इससे मुक्ति सुलभ होती है। एकादशी के दिन अन्न नहीं खाना चाहिये। पूर्ण रूप से उपवास कर व्रत रहना चाहिये। यदि विशेष कारणसे पूर्ण उपवास सम्भव न हो तो व्रत करे। मनुष्य को प्रबोधिनी एकादशी का व्रत तो अवश्य ही करना चाहिये। सोम-मंगलवार तथा पूर्व एवं उत्तर भाद्रपद नक्षत्र के योग में इस एकादशी का महत्त्व करोड़ गुना बढ़ जाता है। उस दिन स्वर्ण की प्रतिमा बनवाकर भगवान विष्णु की तथा उनके दस अवतारों की भी विधिवत् पूजा करनेका विधान है। प्रबोधिनीकी महिमा हजारों मुखसे नहीं कही जा सकती। हजारों जन्मकी शिवोपासनासे प्राप्त होनेवाली वैष्णवता विश्व में सर्वाधिक दुर्लभ वस्तु है, अतएव विद्वान् पुरुष प्रयत्नपूर्वक विष्णु भक्त बनने की चेष्टा करे । इसके पाठसे दुःस्वप्न एवं सभी भय नष्ट हो जाते हैं।
यमराजने कहा-'मुने! उत्तम व्रत के पालन में सदा तत्पर रहनेवाली महाभागा धरणीने जब भगवान वराह की यह बात सुनी तो वे जगत्प्रभुकी विधिवत् आराधना करके उनमें लीन हो गई। नारदजी कहते हैं-'धर्मराज! आप सम्पूर्ण धर्म ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं। आपने जो यह दिव्य कथा कही है, यह धर्म से ओतप्रोत है। अतः: मैं भी आपद्वारा निर्दिष्ट धर्म मार्ग की व्याख्या से संतुष्ट हो गया। अब मैं यथाशीघ्र उन लोकोंमें जाना चाहता हूँ, जहाँ मेरे मन में आनंद की अनुभूति होती है। महाराज! आपका कल्याण हो।