नागपंचमी के व्रत का विधान, फल और कथा का वर्णन
सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! अब मैं पञ्चमी कल्पका वर्णन करता हूँ। पञ्चमी तिथि नागों को अत्यन्त प्रिय है और उन्हें आनन्द देनेवाली है। इस दिन नाग लोक में विशिष्ट उत्सव होता है। पञ्चमी तिथि को जो व्यक्ति नागों को दूध से स्नान कराता है. उसके कुल में वासुकि, तक्षक, कालिया, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक, तथा धनञ्जय-ये सभी बड़े-बड़े नाग अभय दान देते हैं-उसके कुल में सर्प का भय नहीं होता। एक बार माता के शाप से सभी नाग जलने लग गये थे। इसलिए उस दाहकी व्यथाको दूर करनेके लिये पञ्चमीको गाय के दूध से नागों को आज भी लोग स्नान कराते हैं, इससे सर्प-भय नहीं रहता।
राजा ने पूछा-महाराज ! नागमाता ने नागों को क्यों शाप दिया था और फिर वे कैसे बच गये ? इसका आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
सुमन्तु मुनिने कहा-एक बार राक्षसों और देवताओंने मिलकर समुद्र मंथन किया। उस समय समुद्र से अतिशय श्वेत उच्चै:श्रवा नामक एक अश्व निकला उसे देखकर नाग माता कद्धु ने अपनी (सौत) विनता से कहा कि देखो, यह अश्व श्वेत वर्ण का है, परंतु इसके बाल काले दीख पड़ते हैं। तब विनता ने कहा कि न तो यह अश्व सर्वश्चेत है, न काला है और न लाल। यह सुनकर कद्धु ने कहा- 'मेरे साथ शर्त करो कि यदि मैं इस अश्वके वालोंको कृष्णवर्णका दिखा दू तो तुम मेरी दासी हो जाओगी और यदि नहीं दिखा सकी तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी। विनताने यह शर्त स्वीकार कर ली । दोनों क्रोध करती हुई अपने-अपने स्थानको चली गयीं। कद्धुने अपने पुत्र नागोंको बुलाकर सब वृत्तान्त उन्हें सुना दिया और कहा कि 'पुत्रो ! तुम अश्वके वालके समान सूक्ष्म होकर उच्चैश्रवा के शरीर में लिपट जाओ, जिससे यह कृष्णवर्णका दिखायी देने लगे। ताकि मैं अपनी सौत विनताको जीतकर उसे अपनी दासी बना सकूँ। माताके इस वचनको सुनकर नागोंने कहा-'माँ ! यह छल तो हमलोग नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जीत हो या हार छल से जीतना बहुत बड़ा अधर्म है।' पुत्रों का यह वचन सुनकर कद्धु ने क्रुद्ध होकर कहा-तुम लोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हो. इसलिये मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि 'पांडवों के वंश में उत्पन्न राजा जनमेजय जब सर्प-सत्र करेंगे, तब उस यज्ञ में तुम सभी अग्रिमें जल जाओगे।' इतना कहकर वह चुप हो गयी। नाग गण माता का शाप सुनकर बहुत घबड़ाये और वासुकी को साथ में लेकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे तथा ब्रह्माजी को अपना सारा वृत्तान्त सुनाया।
इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि वासुके ! चिन्ता मत करो। मेरी बात सुनो-यायावर-वंशमें बहुत बड़ा तपस्वी जरत्कारु नामका ब्राह्मण उत्पन्न होगा। उसके साथ तुम अपनी जरत्कारु नाम वाली बहन का विवाह कर देना और वह जो भी कहे, उसका वचन स्वीकार करना । उसे आस्तिक नामका विख्यात पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमेजय का सर्प यज्ञ रोकेगा और तुमलोगोंकी रक्षा करेगा। ब्रह्माजी के इस बचनको सुनकर नागराज वासुकि आदि अतिशय प्रसन्न हो, उन्हें प्रणाम कर अपने लोकमें आ गये।
सुमन्तु मुनिने इस कथाको सुनाकर कहा-राजन् ! यह यज्ञ तुम्हारे पिता राजा जनमेजय ने किया था । यही बात श्रीकृष्ण भगवान ने भी युधिष्ठिर से कही थी कि 'राजन् ! आजसे सौ वर्षके बाद सर्प यज्ञ होगा, जिसमें बड़े-बड़े विषधर और दुष्ट नाग नष्ट हो जायेंगे। करोड़ों नाग जब अप्रिमें दग्ध होने लगेंगे.तब आस्तीक नामक ब्राह्मण सर्प यज्ञ रोककर नागों की रक्षा करेगा। ब्रह्माजीने पंचमी के दिन वर दिया था और आस्तीक मुनि ने पंचमी को ही नागोंकी रक्षा की थी, अतः पञ्चमी तिथि नागों की बहुत प्रिय है।
पञ्चमी के दिन नागों की पूजा कर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि जो नाग पृथ्वीमे, आकाश में, स्वर्ग में, सूर्य की किरणों में, सरोवर में, वापी, कृप, तालाब आदिमें रहते हैं, वे सब हमपर प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं।
सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले ॥
ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिता ।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वती गाना ।
ये च वापी तडागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः ।
इस प्रकार नागोंको विसर्जित कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और स्वयं अपने कुटुम्बियोंके साथ भोजन करना चाहिये। प्रथम मीठा भोजन करना चाहिये, अनन्तर अपनी अभिरुचिके अनुसार भोजन करे। इस प्रकार नियमानुसार जो पंचमी को नागोंकी पूजा करता है, वह श्रेष्ठ विमानमें बैठकर नागलोकको जाता है और बाद में द्वापर युग में बहुत पराक्रमी, रोग रहित तथा प्रतापी राजा होता है। इसलिये घी, खीर तथा गुग्गुलसे इन नागोंकी पूजा करनी चाहिये।
राजा ने पूछा-महाराज ! क्रुद्ध सर्पके काटनेसे मरनेवाला व्यक्ति किस गतिको प्राप्त होता है और जिसके माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्पके काटनेसे मरे हों, उनके उद्धारके लिये कौन-सा व्रत, दान अथवा उपवास करना चाहिए. यह आप बतायें।
सुमन्तु मुनिने कहा-राजन् ! सर्पके काटनेसे जो मरता है वह अधोगतिको प्राप्त होता है तथा निर्विष सर्प होता है और जिसके माता-पिता आदि सर्पके काटनेसे मरते हैं. वह उनकी सद्गति के लिये भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को उपवास कर नागोंकी पूजा करे। यह तिथि महापुण्या कही गयी है।
श्रावण शुक्ला पञ्चमीको द्वारके दोनों ओर गोबरके द्वारा नाग बनाये । दही, दूध, दूर्वा , पुष्प, कुश, गन्ध, अक्षत और अनेक प्रकार के नैवेद्य से नागोंका पूजनकर ब्राह्मणों को भोजन कराये। ऐसा करनेपर उस पुरुषके कुलमें कभी सर्प का भय नहीं होता। भाद्रपद की पञ्चमीको अनेक रंगों के नाग के चित्रितकर घी, खीर, दूध, पुष्प आदिसे पूजनकर गुग्गुलकी धूप दे। ऐसा करनेसे तक्षक आदि नाग प्रसन्न होते हैं और उस पुरुषकी सात पीढ़ीतक को सांप का भय नहीं रहता। आश्विन मास की पञ्चमीको कुशका नाग बनाकर गन्ध, पुष्प आदि से उनका पूजन करे । दूध, घी, जलसे स्नान कराये। दूध में पके हुए गेहूँ और विविध नैवेद्य का भोग लगाये। इस पञ्चमीको नाग पूजा करनेसे वासुकि आदि नाग संतुष्ट होते हैं और वह पुरुष नागलोक में जाकर बहुत कालतक सुखका भोग करता है।
इस प्रकार बारह महीने की चतुर्थी तिथि के दिन एक बार भोजन करना चाहिये और पंचमी को व्रत कर नागों की पूजा करनी चाहिये। पृथ्वीपर नागोंका चित्र अङ्कित कर अथवा सोना, काष्ठ या मिट्टीका नाग बनाकर पञ्चमी के दिन करवा, कमल, चमेली आदि पुष्प, गन्ध, धूप और विविध नैवेद्य से उनकी पूजा कर घी, खीर और लड्डू उत्तम पाँच ब्राह्मणों को खिलाये। अनन्त, वासुकि, शंख, पद्म, कंबल, कर्कोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिया, तक्षक और पिंगल-इन बारह नागोंकी बारह महीनों में क्रमशः पूजा करे। इस प्रकार वर्षपर्यन्त व्रत एवं पूजनकर व्रतका पारणा करना चाहिये। बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण को सोने का नाग बनाकर उसे देना चाहिये। यह उथ्थापनकी विधि है।
राजन् ! आपके पिता जनमेजय ने भी अपने पिता परीक्षितके उद्धार के लिये यह व्रत किया था और सोने का बहुत भारी नाग तथा अनेक गौएँ ब्राह्मण को दी थीं। ऐसा करनेपर वे पितृ-ऋणसे मुक्त हुए थे और परीक्षित ने भी उत्तम लोकको प्राप्त किया था। आप भी इसी प्रकार सोने का नाग बनाकर उनकी पूजा कर उन्हें ब्राह्मण को दान करें, इससे आप भी पितृ-ऋणसे मुक्त हो जायेंगे राजन्! जो कोई भी इस नाग पञ्चमी-व्रत को करेगा, साँप डैंसे जानेपर भी वह शुभलोकको प्राप्त होगा और जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस कथा को सुनेगा, उसके कुलमें कभी भी सांप का भय नहीं होगा। इस पञ्चमी-व्रतके करनेसे उत्तम लोककी प्राप्ति होती है।
जहाँ 'ॐ कुरुकुल्ले फट् स्वाहा'-यह मन्त्र पढ़ा जाता है, वहाँ कोई सर्प नहीं आ सकता।