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31 / Jul / 2020


देवीके द्वारा भक्तिका प्रकार तथा ज्ञान प्राप्तिकी महिमा का वर्णन

हिमालयने कहा-माता ! आप अपनी वह भक्ति बताने की कृपा कीजिए ,जिससे मुझ जैसे स्वार्थपरायण साधारण मनुष्य के हृदय में भी सुगमतापूर्वक ज्ञानोदय हो जाए ।

देवी बोली-राजेन्द्र ! मोक्ष प्राप्तिके साधनभूत मेरे तीन मार्ग परम प्रसिद्ध है -कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग । तीनो में यह भक्तियोग सम्पक् प्रकार से संपन्न किया जा सकता है क्योंकि वह परम सुलभ एवं मनके अनुकूल है तथा शरीर एवं चित्त को भी किसी प्रकारका कष्ट नहीं पहुंचाता । मनुष्यों के गुणभेद के अनुसार वह भक्ति भी तीन प्रकारी मानी जाती है। जो दूसरों को दुखी बनाने के उद्देश्यसे दम्भपूर्वक दाह एवं क्रोध से भरकर भक्ति करता है, उसकी वह भक्ति तामसी है । गिरिराज हिमालय ! जो दूसरेको पीड़ा तो नहीं देता परंतु अपना ही कल्याण चाहता है तथा जिस के ह्रदय मे कामनाये कभी खाली नहीं होती. यश एवं भोग की लालसा लगी रहती है ,तथा जो फल पाने की इच्छा से ही श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना करता है; भेदबुद्धिके कारण मुझे अन्य समझता है; उस मन्दबुद्धि मानव द्वारा की हुई भक्ति राजसी है । जो अपना धर्म परमात्मा को अर्पण कर देता है; पाप को धो दालने के लिये ही कर्म करता है; वेदकी आशा अनुसार मुझे निरन्तर सत्कर्मों में लगा रहना चाहिए-यों मनमें निश्चित करके भेदबुद्धि का आश्रय ले मेरी प्रसन्नता के लिये कर्म करता है उसकी वह भक्ति सात्त्विकी है । यह सत्वगुणी भक्ति प्रेमलक्षणा भक्ति को प्राप्त करनेवाली है । रजोगुणी और तमोगुणी भक्ति जो प्रेमलक्षणा भक्ति को प्राप्त करनेवाली नहीं है अतः उसको छोड देना चाहिए। 

अब में श्रेष्ठ भक्ति का विवेचन करती हूँ, सुनो- निरन्तर मेरे गुणका श्रवण और नामका कीर्तन करता रहे । मैं कल्याण एवं गुणमय रत्नों की भण्डार हूँ। मुझमें चित्तको तैलधाराकी भांति सदा लगाये रखे । हेतु अथवा अहेतुकी मन में कभी कल्पना ही न उठे । सामीप्य सायुज्य, सालोक्य और साष्टिॅ-इन चार प्रकारकी मुक्तिकी एषणाओंका कभी मन में उदय ही न हो। मेरी सेवासे बढ़कर कभी किसी काम को श्रेष्ठ न समझे । सेव्य-सेवक-भावकी ऐसी गहरी छाप हो कि जिससे वह कैवल्य मोक्ष भी न चाहे । अटूट श्रद्धा के साथ सावधान होकर केवल मेरा ही चिन्तन करे । मुझमें और अपने मे निरन्तर अभेद बुद्धि रखें । 'सभी जीव मेरे रूप है--ऐसी धारणा सदा बनाये रखे । अपने और परायेमें एक समान प्रीति रखे । चैतन्य परब्रह्म समानरूपी सर्वत्र विराजमान हैं-यह जानकर अभेद दृष्टि रखे ! सम्पूर्ण रूपोंमें सर्वत्र सदा मुझे विराजमान समझकर प्रणाम एवं भजन करे । पर्वतराज हिमालय ! चाण्डाल तक भी भगवतीका रूप है ऐसी भावना होनी चाहिये । भेद त्यागकर कहीं भी द्धेषभाव न रखे । राजन् ! मेरे स्थानके दर्शन करने, मेरे भक्त से मिलने, मेरे शास्त्र के सुनने तथा मेरे मन्त्र-तन्त्रादि में श्रद्धा रखे। मेरे प्रति प्रेम के कारण चित्तमें मधुर हलचल मची रहे एवं शरीर में रोमांच हो जाय । आँखों से प्रेम के आँसू बहते रहें। गद-गद कंठ होने से शब्द निकलना बंद हो जाय ।




पर्वतराज! मैं जगत को उत्पन्न करनेवाली परमेश्वरी हूँ । मैं सम्पूर्ण कारणोंकी मूल कारण हूँ। मेरे नित्य और नैमित्तिक सभी व्रत दिव्य हैं। धनके व्यय में कंजूसी न करके भक्ति के साथ निरन्तर मेरे व्रतों का पालन करे । हिमालय ! मेरा उत्सव देखनेकी अभिलाषा करना तथा उत्सव मनाना पुरुष का स्वभाव ही बन जाय । उच्च स्वर से मेरे नामोंका कीर्तन और नृत्य करे । मनमें अहङ्कार न आने दे । शारीरिक अभिमान छोड़ दे। जो कुछ जैसा किया था, वही प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हो रहा है, यह माने । शरीर के जाने अथवा रहनेकी कुछ चिन्ता न करे । उपर्युक्त प्रकारसे मेरी जो भक्ति की जाती है, उसे 'पराभक्ति 'कहते हैं। जिसमें देवीके अतिरिक्त किसी अन्य देवता का स्मरण तक न हो, वह पराभक्ति है । हिमालय ! इस प्रकार की विशुद्ध भक्ति जिसके हृदयमें उत्पन्न हो जाती है, वह उसी क्षण मेरे चिन्मय रूपमें स्थान पानेका अधिकारी बन जाता है।




भक्ति की जो पराकाष्ठा है, उसी को 'ज्ञान' कहते हैं। वैराग्य की भी चरम सीमा ज्ञान ही है। क्योंकि ज्ञान प्राप्त हो जानेपर भक्ति और वैराग्य दोनों स्वयं सिद्ध हो जाते हैं । हिमालय ! यदि भक्ति करनेपर भी किसी मेरे भक्त को ज्ञान प्राप्त न हो तो वह मेरे दिव्य मणिद्वीप में जाता है । वहाँ जाकर भोग में आसक्त न होता हुआ वह अपना काल बिताता है । गिरिवर ! अन्त में उसे मेरे रूपका सम्यक प्रकारसे ज्ञान हो जाता है । उस ज्ञान के प्रभाव से वह सदाके लिये मुक्त हो जाता है। ज्ञान मुक्तिका अचूक साधन है-इसमें कोई संदेह नहीं । सभी मेरे रूप हैं और मैं सबमें विराजमान हूं -मेरे इस रहस्यको जो समझ जाता है, उसके प्राण उत्क्रमण नहीं कर सकते । जो सबमें ब्रह्मका ही ज्ञान रखता है, वह ब्रह्मका चिन्तन करते-करते स्वयं भी ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। जैसे सुवर्ण का हार गलेमें है, किंतु भ्रमवश समझ लिया जाता है कि वह खो गया फिर, बुद्धि ठीक हो जानेपर भ्रम मिटते ही वह मिल जाता है; क्योंकि वह मिला हुआ तो पहलेसे था ही ऐसे ही पर्वतराज ! वस्तुतः मैं सर्वरूप हूँ, अज्ञान से ही पृथक्ता प्रतीत होती है।

जिसके हृदयमें वैराग्य तो उत्पन्न हो गया. परंतु ज्ञानका पूर्णोदय नहीं हो सका और मर गया तो वह ब्रह्मलोक में स्थान पाता है। एक कल्पतक ब्रह्मलोक में रहने के बाद उसका पुनः शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषोंके घरमें जन्म होता है । तत्पश्यात् साधनके द्वारा वह ज्ञान प्राप्त कर लेता है । राजन् ! अनेक जन्मों केसत्प्रयत्नसे ज्ञानकी उपलब्धि होती है। अतः ज्ञान प्राप्त करने के लिये भलीभाँति यत्न करना चाहिये । प्रयत्न में शिथिलता रही तो बड़ी भारी हानि है। क्योंकि यह मनुष्य-जन्म पुनः मिलना बड़ा कठिन है। यदि किसी प्रकार मानव-जन्म मिल भी गया तो वे में श्रेष्ठ ब्राह्मण और उसमें भी वेदपाठी होना महान् दुर्लभ है। साथ ही शम, दम तितिक्षा आदि छः सम्पत्तियाँ, योग सिद्धि तथा उत्तम गुरु-इन सब का मिलना तो सुलभ है ही नहीं । इन्द्रियोंमें कार्य करने की क्षमता आ जाय और शरीरमें सदा पवित्रता बनी रहे यह भी सहज नहीं है । जब अनेक जन्मों के पुण्य सहायक होते हैं, तब पुरुषके मनमें मुक्त होनेकी इच्छा उत्पन्न होती है। जो मनुष्य इस प्रकारके सफल साधनोंसे सम्पन्न होनेपर भी ज्ञान की प्राप्तिके लिये प्रयत्न नहीं करता उसका जन्म लेना व्यर्थ है। अतएव राजन् । भक्ति के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति के लिये यत्न करनेमें तत्पर हो जाना चाहिये । ज्ञानमार्गपर चलते समय एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है । दूध में छिपे हुए घृतकी भाँति प्रत्येक प्राणी के हृदय में ज्ञान गुप्त रूपसे छिपा है । प्राणी को चाहिये कि मनरूपी मथानीसे निरन्तर मथकर उसे प्राप्त कर ले । वेदांत ने डुग्गी पीटकर यह घोषणा कर दी है कि ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर मानव कृतार्थ हो जाता है। हिमालय ! ये भक्ति और ज्ञान की सब बातें मैंने तुम्हें कह दी।