भगवान शिव द्वारा प्रणव एंव पज्चाक्षर मंत्र की महत्ता और पाँच कृत्यों के लक्षण का वर्णन।
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा-प्रभो ! सृष्टि आदि पाँच कृत्योंके लक्षण क्या है, यह हम दोनों को बताइए। भगवान शिव बोले-मेरे कर्तव्योको समझना अत्यन्त गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूं।
ब्रह्मा और अच्युत ! 'सृष्टि', 'पालन','संहार', 'तिरोभाव' और 'अनुग्रह'-ये पाँच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध है। संसारकी रचनाका जो आरम्भ है, उसीको सर्ग या 'सृष्टि' कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टिका स्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति है। उसका विनाश ही 'संहार' है। प्राणोंके उत्क्रमणको 'तिरोभाव' कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' है। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसारका विस्तार करनेवाले हैं। पाँचयाँ मृत्यु अनुग्रह मोक्षका हेतु है वह सदा मुझमें ही अचल भावसे स्थिर रहता है। मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्योंको पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जलमें, संहार अग्नि मे, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जलसे सबकी वृद्धि एवं जीवन रक्षा होती है। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थानसे दूसरे स्थानको ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। विद्वान् पुरुषोंको यह विषय इसी रूपमें जानना चाहिये। इन पाँच कृत्योंका भारवहन करनेके लिये ही मेरे पाँच मुख हैं। चार दिशाओंमें चार मुख हैं और इनके बीच में पाँचवाँ मुख है। पुत्रो ! तुम दोनोंने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वरसे सृष्टि और स्थिति नामक दो कार्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय है। इसी प्रकार मेरी विभूतिस्वरूप 'रुद्र' और 'महेश्वर' में दो अन्य उत्तम कृत्य-संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं। परंतु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर अपने कर्मको भूले नहीं हैं। इसलिये मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदिमें मेरे समान ही हैं मैंने पूर्वकालमें अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महामङ्गलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुखसे ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूपका बोध करानेवाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ । यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का निरन्तर स्मरण करनेसे मेरा ही सदा स्मरण होता है।
'ओम् (ॐ) ' इस मंत्र का प्रतिदिन एक सहस्त्र जप करना चाहिए ऐसा करने से मैरी कृपा से संपूर्ण मनोरथ की सिद्धि होती है।
मेरे उत्तरवर्ती मुखसे अकारका, पश्चिम मुखसे उकार का, दक्षिण मुखसे मकारका, पूर्ववर्ती मुखसे बिन्दु तथा मध्यवर्ती मुखसे नादका प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव 'ॐ' नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम-रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद उत्पन्न स्त्री -पुरुष वर्ग रूप दोनों कुल इस प्रणव-मनसे व्याप्त हैं। यह मंत्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है। इसीसे पञ्चाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूपका बोधक है। वह अकारादि क्रमसे और मकारादि क्रमसे क्रमशः प्रकाशमें आया है ('ॐ नमः शिवाय' यह पञ्चाक्षर-मन्त्र है)। इस पञ्चाक्षर-मंत्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेदवाले हैं। उसी से शिरो मंत्र सहित त्रिपदा गायत्रीका प्राकट्य हुआ है। उस गायत्रीसे सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं। उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्योकी सिद्धि होती है।
परंतु इस प्रणव एवं पञ्चाक्षरसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है। स्त्रीयों को 'शिवाय नमः ' इस मंत्र का जाप करना चाहिए। पञ्चाक्षर-मन्त्र का पाँच करोड़ जप करके मनुष्य भगवान सदाशिव के समान हो जाता है। एक, दो, तीन अथवा चार करोड़ का जप करनेसे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है अथवा मन्त्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक्-पृथक एक-एक लाख जप करे अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ ही जितने अक्षर हों उतने लाख जप करे। इस तरहके जपको शिव पद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये। यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक सहस्र जप के क्रम से पञ्चाक्षर-मन्त्र का दस लाख जप पूरा कर लिया जाय और प्रतिदिन ब्राह्मण-भोजन कराया जाय तो उस मंत्र से अभीष्ट कार्यकी सिद्धि होने लगती है।
इस मन्त्र समुद्रायसे भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं। मेरे सकल स्वरूपसे सम्बन्ध रखने वाले सभी मन्त्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभकारक (मोक्षप्रद) है।
नन्दिकेश्वर कहते हैं तदन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेव ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णु का पर्दा करने वाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपने करकमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मंत्र उपदेश किया। मन्त्र-तन्त्रमें बतायी हुई विधिके पालनपूर्वक तीन बार उच्चारण करके भगवान शिव ने ऊन दोनों शिष्यों को मंत्र की दीक्षा दी। फिर उन शिष्यों ने गुरु दक्षिणा के रूप में अपने आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देश्वर जगद्गुरुका स्तवन किया।
ब्रह्मा और विष्णु बोले -प्रभो ! आप निष्कलं स्वरूप हैं। आपको नमस्कार है । आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते हैं। आपको नमस्कार है। आप सबके स्वामी है। आपको नमस्कार है। आप सर्वात्माको नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वरको नमस्कार है। आप प्रणवके वाच्यार्थ हैं। आपको नमस्कार है। आप प्रणवलिंग वाले हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करनेवाले आपको नमस्कार है। आपके पाँच मुख हैं। आप परमेश्वरको नमस्कार है। पच्चब्रह्म स्वरूप पाँच कृत्यवाले आपको नमस्कार है। आप सबके आत्मा है, ब्रह्म हैं। आपके गुण और शक्तियाँ अनन्त हैं, आपको नमस्कार है। आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं। आप सद्गुरु एवं शम्भू हैं, आपको नमस्कार है।
इन पद्योंद्वारा अपने गुरु महेश्वरकी स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणोंमें प्रणाम किया । महेश्वर बोले-'आद्रा' नक्षत्र से युक्त चतुर्दशीको प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है। सूर्यकी संक्रांति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव-जप कोटिगुने जप का फल देता है। 'मृगशिरा नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा 'पुनर्वसु आदिम भाग पूजा, होम और तर्पण आदिके लिये सदा आर्द्रा के समान ही होता है-यह जानना चाहिये। मेरा या मेरे लिङ्गका दर्शन प्राभातकाल में ही-प्रातः और संगव (मध्याह्न के पूर्व) कालमें करना चाहिये। मेरे दर्शन-पूजनके लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिए; क्योंकि परवर्तिनी तिथिसे संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है। पूजा करनेवालोंके लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्तिकी अपेक्षा लिङ्गका स्थान ऊँचा है। इसलिये मुमुक्ष पुरुषोंको चाहिये कि वे वेर (मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर लिङ्गका ही पूजन करें। लिंग का ॐकार मंत्र से और वेर(मूर्ति)का पंचााक्षर-मंत्र से पूजन करना चाहिये । शिवलिंगकी स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरोंसे भी स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यमय उपचार से पूजा करनी चाहिये। इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है।
इस प्रकार उन दोनों शिष्योंको उपदेश देकर भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।