ऐसे कर्म जो ब्रम्ह-हत्या के समान है उसका वृत्तांत
शौनक आदि ऋषियों ने सूतजी से प्रश्न किया-हे विद्वान शिरोमणि सूत जी! आपने बताया है कि त्वष्टा के सुपुत्र परम विद्वान एवं तपस्वी विश्वरूपजी का मस्तक एक बार इन्द्र ने काट डाला था जब कि वे इन्द्र के ही पुरोहित थे। क्या यह सत्य है ? इन्द्र ने अपने ही पुरोहित का सिर क्यों काट डाला और फिर उसका क्या परिणाम हुआ ? इसकी कथा सुनाने की कृपा करें।
सूत जी बोले-हे ऋषिगण ! आप लोगों ने जो सुना है, वह सर्वथा सत्य है। वास्तव में इन्द्र ने अपने पुरोहित और भाजक विश्वरूप का मस्तक काट डाला था। इसका कारण यह था कि विश्वरूप एक अत्यन्त उदार, दयालु एवं सज्जन प्रकृति के महापुरुष थे। वे शत्रु और मित्र में कोई अन्तर नहीं करते थे। जो कोई भी उनके पास जिज्ञासु भाव से आकर उनसे कोई प्रश्न करता, वे उसका उदारतापूर्वक समाधान कर देते थे। दैत्य भी कभी-कभी उनके पास आकर अपनी शंका का समाधान कर लेते तथा ज्ञान एवं उपदेश प्राप्त कर लिया करते थे। वे विश्वरूप जी को आदर की दृष्टि से देखते थे।
दैत्यों और देवताओं में युग-युग से बैर-भाव चलता रहा है। देवताओं के अधिपति इन्द्र को यह स्वीकार न था कि उनका पुरोहित उनके शत्रुओं से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखे । इससे क्रुद्ध होकर एक दिन इन्द्र ने अपने तीक्ष्ण शस्त्र से विश्वरूप का मस्तक काट डाला। मस्तक कटते ही उनकी मृत्यु हो गई। अपने गुरु सदृश पुरोहित की हत्या और वह भी एक ब्राह्मण की हत्या कोई साधारण पाप नहीं होता। अतएव ब्रह्म हत्या ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। इन्द्र उसके भय से प्राण लेकर इधर-उधर भागते और छिपते रहे।
कुछ समय तक वे वार्त्रध्नी और गिरिकन्या नामक पवित्र नदियों के संगम पर स्थित कुओं में छिपकर कन्द-मूल फल खाकर अपना जीवन यापन करने लगे, परंतु वे बहुत अधिक दिन तक छिपकर न रह सके । एक दिन अवसर पाकर ब्रह्म-हत्या ने उन्हें धर दबोचा ।जब इन्द्र ने अपने सम्मुख अखिल ब्रह्माण्ड को भयभीत करने वाली ब्रह्म-हत्या को रौद्र रूप में देखा तो उनका साहस छूट गया। उन्होंने देखा, ब्रह्महत्या का रूप अत्यन्त भयानक है। गले में कपालों एवं मुण्डों की माला है। उसके हाथ चमकते हुए ताजे रुधिर से रंगे हुए हैं। शरीर से मत्स्य गंध निकलकर सम्पूर्ण वातावरण को और भी भयावह बना रही है। ब्रह्म-हत्या को देखते ही इन्द्र ने तीव्र गति से उसके सम्मुख से पलायन किया और निकट के एक सरोवर में कमल डंडियों के मध्य में जा छिपे । ब्रह्म-हत्या उनका पीछा करती हुई उस सरोवर के तट पर भी जा पहुंची और इन्द्र को बाहर निकलने के लिए ललकारने लगी किन्तु अब देवराज इन्द्र में इतना साहस कहाँ था कि वे ब्रह्महत्या के सम्मुख आ सकते। वे चुपचाप वहाँ पड़े रहे और वहाँ से बच निकलने के लिए अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। सौभाग्य से उन्हें यह अवसर भी शीघ्र ही प्राप्त हो गया।
एक दिन अर्धरात्रि के समय इन्द्र सरोवर में से निकल ब्रह्म-हत्या की दृष्टि बचाकर मेढ़े का रूप धारण कर पितामह ब्रह्मा के पास पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पितामह को अपनी सम्पूर्ण व्यथा सुनाई और ब्रह्म-हत्या से मुक्ति दिलाने के लिए अनुनय विनय करने लगे। दुःखी इन्द्र की करुण कहानी सुन कर ब्रह्माजी बोले-हे इन्द्र ! तुमने अपने ब्राह्मण पुरोहित की हत्या करके भयंकर पाप किया है। यह पाप तो ऐसा है कि सौ अश्वमेध यज्ञ करने पर भी इससे मुक्ति नहीं मिलती। तुम्हें ऐसा भयंकर कृत्य नहीं करना चाहिए था।
जब ब्रह्मा और इन्द्र में इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था तभी ब्रह्म-हत्या भी वहाँ पहुँच गई और पितामह को प्रणाम कर बोली-पितामह ! इन्द्र महापापी है । इसे इसके पाप का दण्ड भोगना ही चाहिए। यह आपकी कृपा का पात्र कदापि नहीं है। यदि आप दया के वशीभूत होकर इस प्रकार के पापियों को क्षमा करने लगे तो धर्म की मर्यादा समाप्त हो जायेगी।
ब्रह्म-हत्या की तर्कसंगत बात सुनकर पितामह बोले- तुम ठीक कहती हो ।पापी को कदापि क्षमा नहीं करना चाहिए, परन्तु इतने दिनों तक इन्द्र ने जो मानसिक और शारीरिक क्लेश भुगता है, वह भी एक प्रकार से उनके पाप का दण्ड है। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित करने से भी पाप का भार कम हो जाता है । इसका भी में इन्द्र के लिए विधान करना चाहता हूँ। पितामह की बात सुनकर ब्रह्म-हत्या बोली- भगवन् ! जैसी आपकी इच्छा हो वैसा आदेश दें। उसमें मैं व्यवधान कैसे उत्पन्न कर सकती हूँ। यदि आपका ऐसा ही आदेश है तो में इन्द्र को मुक्त करके चली जाऊगी, परंतु मैं आपसे प्रार्थना करूंगी कि मेरे निवास के लिए मुझे ऐसा कोई उपयुक्त स्थान बतायें जहाँ जाकर में निवास कर सकूँ।
ब्रह्माजी ने कहा-ठीक है, इसकी व्यवस्था में किये देता हूँ। तुम्हें एक बात का ध्यान रखना होगा कि तुम इतनी शक्ति शाली हो कि संसार में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो तुम्हारे भार को वहन कर सके। इसलिए तुम्हें अपने आपको कुछ भागों में विभक्त करना होगा।
ब्रह्म हत्या ने जब ब्रह्मा जी के आदेश को मानकर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तो उन्होंने सबसे पहले अग्नि देव को बुलाया और उनसे कहा- अग्निदेव ! तुम पर्याप्त शक्तिशाली हो। इसलिए इन्द्र पर आ पड़ी ब्रह्महत्या का चौथा अंश तुम ग्रहण करो।
ब्रह्माजी का आदेश पाकर अग्निदेव बोले-प्रभो ! यह तो बड़ा भयंकर भार है। फिर भी में आपके आदेश को स्वीकार करने को प्रस्तुत हूँ, परन्तु मुझे यह तो बताइये कि मुझे इस भयंकर भार से कब और कैसे मुक्ति मिलेगी ? अथवा मुझे जीवन भर यह ढोना पड़ेगा!
ब्रह्मा बोले-नहीं, ऐसा नहीं होगा। इसकी मुक्ति का उपाय मैं तुम्हें बताता हूँ। अब से यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होगा कि वह तुम्हें यज्ञ के रूप में प्रज्ज्वलित देख कर तुम्हारी ज्वाला में बीज, औषधि, तिल, समिधा, फल, मूल या कुशा आहुति के रूप में डाले। यदि वह अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं करेगा तो तुम्हारे साथ संलग्न ब्रह्म-हत्या तुम्हें छोड़कर उस व्यक्ति से जाकर चिपट जायेगी। इसके पश्चात् पितामह ने वृक्ष, औषधि तथा तिनकों को बुलाकर उनसे भी यही बात कही।
उन्होंने भी जब अग्नि देव की भाँति चिन्तित होकर अपनी मुक्ति का उपाय पूछा तो ब्रह्माजी ने उन्हे बताया कि कोई व्यक्ति बिना किसी महत्वपूर्ण कारण के तुम्हें काटेगा या भेदेगा तो यह ब्रह्म हत्या उससे चिपट जायेगी। जब वे संतुष्ट होकर चले गये तो ब्रह्माजी ने अप्सराओं को बुलाकर उनसे भी ब्रह्म-हत्या का चतुर्थांश ग्रहण करने को कहा । जब उन्होंने इस हत्या से अपनी मुक्ति का उपाय पूछा तो ब्रह्माजी ने कहा- जो पुरुष रजस्वला स्त्रियों के साथ मैथुन करेगा तो यह ब्रह्महत्या तुम्हें छोड़कर तत्काल उनसे चिपट जाएगी।ब्रह्माजी का आदेश स्वीकार कर जब अप्सरायें अपने-अपने स्थानों को चली गई तो ब्रह्म-हत्या के अंतिम चतुर्थांश की व्यवस्था करने के लिए पितामह ब्रह्मा ने जल देव का आह्वान किया। उनके आगमन पर ब्रह्माजी ने उन्हें भी ब्रह्म-हत्या का चतुर्थांश ग्रहण करने का आदेश दिया। जब उन्होंने पितामह की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपनी मुक्ति का उपाय पूछा तो ब्रह्मा जी ने कहा-जो क्षुद्र बुद्धि मनुष्य तुम्हारे अन्दर थूकेगा या मल-मूत्र का त्याग करेगा, उसी को ब्रह्म-हत्या घेर लेगी और तुम्हें मुक्ति प्रदान कर देगी।
इस प्रकार ब्रह्म हत्या का विभाजन कर पितामह ब्रह्मा ने इन्द्र को ब्रह्महत्या से मुक्ति दिलाई तथा उनके लिए प्रायश्चित करने का उपाय बताया। इस प्रकार सब लोग सन्तुष्ट होकर अपने-अपने निवास स्थान को चले गये। इन्द्र भी प्रायश्चित करके अपने लोक में जाकर पुनः शासन करने लगे।
इसलिए -हे ! ॠषिगण मनुष्यों को ज्ञात या अज्ञातवश भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिनके फल स्वरूप ब्रह्म-हत्या का दोष (पाप) उन्हें लग जाये।