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15 / Aug / 2020


कन्या दान का महत्व

एकबार सूतजी से ॠषियों ने पूछा कि संसार में श्रेष्ठ दान कौन सा है? तब सूतजी ने कहा है कि इस विषय में भगवान ने अपने ब्राह्मण भक्त को जो बताया था वो में आपसे निवेदन करता हूँ। सुनो! यह उस समय की बात है जब भगवान विश्वकर्मा का वंश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैल चुका था। उनके वंशजों में एक ब्रह्मर्षि द्विजदेव भी थे। वे नियमपूर्वक समस्त धार्मिक कर्म करते हुए सदा स्वाध्याय में रत रहते थे, जो समय बचता उसे प्राणायाम, योगाभ्यास तथा समाधि में व्यतीत करते। एक दिन वे आत्म तत्व का चिन्तन करते हुए जा रहे थे कि मार्ग में एक वट वृक्ष से एक जीवात्मा गिरकर उनके चरणों पर आ पड़ी ।  ब्रह्मर्षि ने बड़े प्रेम से उसे उठाकर खड़ा किया।वह दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र शब्दों में बोली-हे महर्षे! आप परमात्मा के अनाम भक्त एवं परम तपस्वी हैं। मैं आपको बहुत दिनों से ईश्वरोपासना तथा तत्व चिंतन करते देख रहा हूं। मैंने अनेक बार आपकी शरण में, आने की चेष्टा की, परन्तु साहस नजुटा सका। आज असाधारण साहस करके आपकी शरण में आया हूँ। हे महात्मन ! आप मेरा उद्धार करें। मैं बहुत समय से प्रेत योनि में पड़ा रोरव नर्क की यातनाएँ भुगत रहा हूँ। अब वे यातनाएँ मुझ से नहीं सही जाती। इसलिए हे दयालु ! मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो! मैं आपकी शरण में आया हूँ। 

प्रेत की आर्तवाणी सुन ब्रह्मर्षि का हृदय करुणा से विचलित हो गया। उन्होंने दया कर कहा-अच्छा ! तुम मेरे साथ इलाचल पर्वत (हेमकुंट पर्वत जो हिमालय की पर्वतमाला में स्थित हे) पर चलो। वहाँ भगवान विश्वकर्मा ने विश्व कुण्ड हेमकुंट पर्वत पे आया हुआ हेमकुंड ) का निर्माण कराया है। उसमें स्नान करके अनेक पापात्मा अपने पापों से मुक्ति पा चुके हैं। प्रभु ने चाहा तो तुम्हारा भी कल्याण हो जायेगा। यह कह कर वे प्रेत को अपने साथ इला चल पर्वत पर ले गये। वहाँ उसने ब्रह्मर्षि के आदेशानुसार विश्वकुण्ड में स्नान किया। स्नान करके जब वह बाहर निकला तो प्रभु की कृपा से उसका प्रेतत्व समाप्त हो चुका था। अब वह एक स्वरूपवान मनुष्य बन गया था।

प्रेत ने द्विजदेव को साष्टांग दण्डवत करते हुए कहा हे महात्मन् ! आपने दया करके मुझे प्रेत योनि से मुक्ति दिलाई है, में आपके इस अनुग्रह को कभी विस्मृत नहीं कर सकता । मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था, किन्तु अपने कुकर्मों के फलस्वरूप प्रेत योनि को प्राप्त हुआ। उसको यह विनीत वाणी सुनकर द्विजदेव बोले-भाई ! इसमें मैंने कुछ नहीं किया और न में कुछ कर सकता हूँ। इस संसार में जो कुछ भी शुभ-अशुभ होता है, वह जगत-नियन्ता प्रभु के संकेत तथा आदेश से होता है । वे ही इस अखिल ब्रह्माण्ड के रचयिता, पालक एवं संचालक हैं। उन्होंने ही उन भूली-भटकी जीवात्माओं के उद्धार के लिए इस कुण्ड का निर्माण कराया है, जो अनेक अनेक दुर्गुणों के वशीभूत होकर कुकृत्य करती हैं और इसके फलस्वरूप पाप योनि को प्राप्त होती हैं। अब तुम इस दुष्ट योनि से छुटकारा पाकर पुनः मनुष्य योनि में आ गये हो। यह योनि परमात्मा द्वारा बनाई गई योनि में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसमें प्राणी सोच समझ कर कर्म कर सकता है। प्रभु ने उसे इतनी बुद्धि दी है कि वह जिस मार्ग को चाहे उस पर चल सकता है। यदि वह चाहे तो अच्छे कर्म करके देवयोनि को प्राप्त कर सकता है तथा स्वर्ग को जा सकता है । इसके विपरीत यदि वह चाहे तो प्रमादवश पाप मार्ग को अपना कर अधिकाधिक अधःपतन को प्राप्त हो सकता है। इसलिए तुम भी भगवान की भक्ति में ध्यान लगाओ ! सदाचार एवं सद्धर्म में प्रवृत्त होओ। स्मरण रखो, तन-मन से प्रभु की भक्ति करने वाले को कभी कोई कष्ट नहीं होता, सांसारिक यातनाएँ उसे भयभीत नहीं करतीं। वह उनकी कृपा से सहज ही समस्त संकटों से छुटकारा पा जाता है।
 
ब्रह्मर्षि द्विजदेव की शिष्यता प्राप्त कर वह ब्राह्मण उन्हीं के आश्रम में रह कर ईश्वर भक्ति करने लगा एक बार उस की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान उस के सामने प्रकट हुए।  प्रभु को देख कर ब्राह्मण बोला - है भगवान ! मैं अपने कुकर्मों के कारण उच्च कुल का ब्राह्मण होते हुए भी प्रेत बना । फिर आपकी कृपा से मुझे उस योनि से मुक्ति मिली तथा मैंने पुनः अपने पूर्व रूप को प्राप्त किया। इस प्रकार के परिवर्तनों से मुझे सांसारिक माया-मोह के प्रति कोई रुझान नहीं रह गया । अतएव मैं कोई सांसारिक सुख नहीं चाहता। मेरे मन में केवल एक जिज्ञासा है, आप उसका समाधान करने की कृपा करें। यह तो मैं जानता हूँ कि पुण्य का कार्य करने से मनुष्य को उत्तम फल प्राप्त होता है। पुण्य कार्य भी अनेक प्रकार के हैं। समय की अवधि समाप्त हो जाने पर उन पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला सुख भी समाप्त हो जाता है, परन्तु ऐसा कौन सा पुण्य है जिसके फल का न तो कभी क्षय होता है और न जिसकी अवधि कभी समाप्त होती हैं? कुछ लोग कहते हैं कि दान देना सबसे बड़ा पुण्य है। यदि यह सच है तो ऐसा कौन सा दान है जिसके फल का कभी क्षय नहीं होता?

ब्राह्मण का प्रश्न सुनकर प्रभु बोले-वत्स !तुमने यह यथार्थ सुना है कि दान देना सब पुण्यों में श्रेष्ठ है, परन्तु दान भी अनेक प्रकार का होता है। अन्न दान, वस्त्र दान, गौ दान, धन दान, स्वर्ण दान आदि। इन दानों के फल की एक सीमा होती है। उसके बाद इनका फल समाप्त हो जाता है, परन्तु कन्या दान एकमात्र ऐसा दान है जिसका फल अक्षय होता है। सुकन्या का दान करने वाले मनुष्य स्वर्ग को जाता है ।

सूतजी बोले- मैं तुम्हें सतयुग के प्रारम्भिक काल की एक घटना सुनाता हूँ । यह उस समय की घटना है जब महर्षि कश्यप से उत्पन्न प्रजा सारे संसार में फैल गई थी । उन्हीं दिनों दक्ष प्रजापति ने अपनी चौंसठकन्याओं का विवाह करके कन्यादान का महान फल प्राप्त किया था। कन्या दान से निवृत्त होकर उन्होंने भोजन किया। भोजन के उपरान्त जब वे हाथ धो रहे थे तो उनके हाथ पर से होता हुआ कुछ जल एक नेवले के ऊपर गिरा जो घूमता हुआ वहाँ आ निकला था। कन्या दान के फल से हुए बड़े भागी दक्ष के हाथों से स्पर्श किये गये जल का भाग नेवले के आधे शरीर पर गिरने से नेवले का आधा शरीर कंचन का हो गया। यह देख उसे आनंद भी हुआ और दुःख भो। आनन्द तो इसलिए हुआ कि उसका आधा शरीर स्वर्ण का हो गया था और दुःख इसलिए हुआ कि सम्पूर्ण शरीर कंचन का होने के स्थान पर उसका केवल आधा शरीर ही कंचन का हुआ था। वह अपने शेष शरीर को भी कंचन का करने लिए स्थान-स्थान पर भटकने लगा। वह सम्पूर्ण सृष्टि में इस आशा को लेकर घूम आया, किन्तु उसकी यह अभिलाषा कहीं पूरी नहीं हुई। अभिलाषा पूरी न होने पर भी नेवला ह्ताश नहीं हुआ। उसे विश्वास था कि कभी न कभी कोई ऐसा महान पुण्यात्मा अवश्य मिलेगा जिसकी कृपा से उसका शेष शरीर कंचन का हो जायेगा। वह इसी उधेड़बुन में घूमता हुआ महर्षि कश्यप के आश्रम में जा पहुँचा। वहाँ महर्षि समाधि में लीन थे उसी समय कहीं से एक भयंकर सर्प आया । उसने अपना फन उठा कर जब महर्षि कश्यप को डसना चाहा तभी नेवले की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने दौड़कर नाग का फन अपने मुख में दबोच लिया और उसे मार डाला। दैववशात् उसी समय महर्षि को समाधि भंग हो गई। उन्होंने देखा कि उनके निकट ही एक भयंकर नाग मरा पड़ा है और थोड़ी दूर पर एक नेवला बैठा है जिसके मुख पर अब भी नाग का रक्त लगा हुआ है।

उन्हें कंचन के अर्ध शरीर वाले नेवले को देखकर विस्मय हुआ। पहले तो उन्होंने अपनी प्राण-रक्षा के लिए नेवले को धन्यवाद दिया। फिर उसके शरीर के आधा स्वर्णमय होने का इतिहास पूछा। नेवले ने कश्यप जी को प्रसन्न जान सारा वृत्तान्त कह सुनाया और उनसे ऐसा उपाय पूछा जिससे उसका शेष शरीर भी कंचन का हो जाय ।

थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् महर्षि ने कहा-हे नेवले! तू स्वभाव से परोपकारी है । तुझमें ईश्वर के प्रति निष्ठा भी है।इसलिए मैं तुझे तेरी अभिलाषा की पूर्ति का एक उपाय बताता हूँ। तू यहाँ से पश्चिम दिशा की ओर चला जा। यहाँ से सौ कोस की दूरी पर मुझे पाताल का द्वार मिलेगा। उस द्वार से होकर पाताल में रहने वाले नाग तथा सर्प पृथ्वी पर भ्रमण करने के लिए आते हैं। इसी द्वार से होकर इलाचल नामक पवित्र तीर्थ स्थल के मार्ग जाता है जिस पर प्रभु विश्व कर्मा अपने पुत्रों सहित निवास करते हैं। तुझे वहाँ जाकर अहिंसा व्रत का पालन करते हुए प्रभु की उपासना करनी है। यदि नाग तुझे चारों ओर से घेर लें तो भी तुझे उन्हें मारनानहीं है। मैं जानता हूँ कि सांपों के साथ तेरा जन्म-जन्मान्तर का वेर है। फिर भी तुझे पूर्ण अहिंसा व्रत का पालन करते हुए उनको मारना तो एक और, उन पर क्रूर दृष्टि भी नहीं, डालनी है । मैं जानता हूँ, इसके लिए तुझे अपने आप पर कठोर संयम करना होगा । यदि इस व्रत में तू चूकेगा तो तुझे सिद्धि नहीं मिलेगी और तेरी अभिलाषा केवल अभिलाषा ही बनकर रह जायेगी। इसलिए तुझे सतर्क रहना है।




कश्यप मुनि के वचन सुन नेवला बोला-भगवन् ! यह तो ठीक है कि मैं आपकी आज्ञा मानकर नागों को नहीं मारूंगा, परन्तु यह भी निश्चित है कि वे मुझे किसी भी दशा में जीवित नहीं छोड़ेंगे । जहाँ हजारों ऐसे हों जो मेरी जाति से ही शत्रुता रखते हों, वे मुझे जीवित कब रहने देंगे? नेवले की यह आशंका सुनकर महर्षि ने कहा-वहाँ मार्ग में ऐसे हजारों विषहर वृक्ष हैं जिनके निकट साधारण सर्प ही नहीं, भयंकर नाग भी नहीं जाते। इसलिए तू केवल उन वृक्षों के नीचे चल कर ही यात्रा करना। जब तू इलाचल पर पहुंच जायेगा, तब तुझे कोई भय नहीं होगा, क्योंकि प्रभु विश्व कर्मा के निवास स्थान के निकट तुझे कोई भी प्राणी कष्ट नहीं देगा । वहाँ समस्त प्राणी पारस्परिक तथा वंशगत सभी प्रभाव को भुलाकर सौहार्दपूर्वक निवास करते हैं। महर्षि कश्यप के निर्देशानुसार नेवला इलाचल पर जाकर आदि नारायण की तपस्या करने लगा। वह वैरभाव को भूलकर समस्त सर्पों के साथ मित्रवत् व्यवहार करता।




वह भी उसके साथ ऐसा ही करते। जो कुछ मिल जाता उससे पेट भरता। शेष समय में निष्ठापूर्वक भगवान का ध्यान करता। दिन में दो बार-प्रातः: सायं--भगवान के दर्शन अवश्य करता। इस प्रकार तपश्चर्या करते हुए उसे दस वर्ष व्यतीत हो गये नेवले का शेष शरीर फिर भी सोने का नहीं हुआ। वह कंचन का तभी हो सकता था जब कोई निष्ठावान पुरुष कन्या दान का फल प्राप्त करके उस पर अपने हाथों से जल छिड़कता। अतएव नेवले की इच्छा पूर्ण करने के लिए प्रभु ने अपने हाथों से दो पुत्रियाँ उत्पन्न की जो पुत्री प्रथम उत्पन्न हुई वह बड़ी कहलाई। उसका नाम रन्नो देवी रखा गया। इसी का विवाह सूर्य नारायण के साथ हुआ था। रन्नो देवी ने अपना भाग्य प्रभु के हाथों में सौंपते हुए कहा जिससे आप मेरा विवाह कर देंगे वही मुझे पति के रूप में स्वीकार होगा। पुत्री की यह बात सुन उन्होंने सूर्य नारायण से रन्नोदेवी का विवाह करने की तैयारी आरम्भ कर दी। प्रभु ने गुरु बृहस्पति के साथ वास्तुदेव को कश्यप के पास अपनी कन्या के वाग्दान के लिए भेजा।

इन दोनों को अपने आश्रम में आया देख कश्यप ॠषि ने दोनों का यथोचित सत्कार किया। कुशल क्षेम के पश्चात् वास्तुदेव ने बताया-हे महर्षि ! भगवान विश्व कर्मा अपनी कन्या रन्नो देवी का विवाह आपके पुत्र सूर्य नारायण के साथ करना चाहते हैं। इस विषय में आपकी सहमति प्राप्त करने के लिए ही प्रभु ने हमें आपकी सेवा में भेजा है। अतएव आपकी स्वीकृति पाकर हम धन्य होंगे। महर्षि की सहमति प्राप्त होने पर गुरु बृहस्पति ने शुभ मुहूर्त में वाग्दान की प्रथा का पालन किया।

जब सब अतिथि विदा हो गये तो प्रभु कन्या के विवाह से निवृत्त होकर अपने बन्धु-बांधवों एवं पुत्रों के साथ उचित आसन पर भोजन के लिए बैठे। भोजन के पश्चात् जब वे हाथ धो रहे थे तभी महर्षि कश्यप की आज्ञा से प्रेरित नेवला वहाँ आ गया और जहाँ प्रभु के हाथ से होकर जल की धारा नीचे गिर रही थी, वहाँ आकर खड़ा हो गया। कन्यादान का फल प्राप्त कर प्रभु द्वारा धोये गये हाथों के जल के गिरने से नेवले का शेष शरीर भी उसी क्षण कंचन का हो गया। यह चमत्कार देखकर समक्ष उपस्थित जनों को महान आश्चर्य हुआ। प्रभु ने कन्या दान का माहात्म्य समझाकर उन सबके आश्चर्य को दूर किया। सूतजी बोले-ऋषियों ! कन्यादान की महिमा अपार है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक बार कन्यादान अवश्य करना चाहिए। यदि अपनी कन्या न हो तो किसी ब्राह्मण अथवा निर्धन व्यक्ति की कन्या को अपनी कन्या मानकर उसके विवाह का सम्पूर्ण व्यय वहन करते हुए कन्या दान करना चाहिए । उसे चाहिए कि वह इस विवाह में अपने पक्ष पर वर अथवा वर पक्ष का कुछ भी धन व्यय न कराये। यदि उस विवाह पर होने वाले व्यय में वर पक्ष का थोड़ा भी धन सम्मिलित हो जाता है तो कन्यादान का फल नष्ट हो जाता है।

एवं व्यभिचारीणी कन्या का दान करने से भी कन्या दान का फल नष्ट हो जाता है। कन्या का दान लेने वाले को भी कन्या पक्ष से उतना ही धन लेना चाहिए जितना वह श्रद्धापूर्वक सुविधानुसार दे सके। उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं होना चाहिए। वर तथा वर के पिता को सुयोग्य कन्या के अतिरिक्त और कुछ भी कन्या पक्ष से दान में लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इससे वर तथा वर के पिता को भारी पातक (पाप) लगता है। यह कह कर सूतजी बोले-हे ऋषियों ऐसा महान होता है कन्या दान का फल !