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25 / Aug / 2020


भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार का वर्णन

 

ऋषिगण बोले-सूत जी ! आपने बड़े ऐश्वर्या की बात कही । अरे, जो भगवान विष्णु सबके कर्ताधर्ता हैं, उनका भी मस्तक कटकर धड़ से अलग हो गया । फिर उस धड़ पर घोड़े का सिर रखा गया और वे 'हयग्रीव' कहलाने लगे । वेद भी जिनकी स्तुति करते हैं, सम्पूर्ण देवताओं को आश्रय देना जिनका स्वाभाविक गुण है तथा जो समस्त कारणों के भी परम कारण है, उन आदिदेव जगतप्रभु भगवान श्रीहरि को भी छिन्नमस्तक हो जाना पड़ा-यह देवकी ही करामात है। परंतु महामते | ऐसी घटना कैसे घट गयी- इसे शीघ्र विस्तारपूर्वक कहनेकी कृपा कीजिये । 

सूत जी कहते हैं--मुनिगणो ! भगवान विष्णु परम तेजस्वी एवं देवताओं के भी देवता हैं| उनकी लीला बड़ी विचित्र है। तुम सब लोग अत्यन्त सावधान होकर उनकी अद्भुत कथा सुनो । एक समयकी बात है-सनातन परम प्रभु भगवान श्री हरि को दैत्यों के साथ दस हजार वर्षो तक युद्ध करना पड़ा। उन्हें थकान-सी हो गयी। फिर अच्छे स्थान में पद्मासन लगाकर और भूमि पर रखें धनुष पर डोरी चढ़ी हुई रखकर उसको गले में लगाकर धनुषकी नोक पे भार देकर वो सो गए। श्रम के कारण अथवा लीलासंयोगसे उन्हें घोर निद्रा आ गयी । उसी अवसरपर कुछ दिनोंसे देवताओं के यहाँ यज्ञ करनेकी योजना चल रही थी। इन्द्रः ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवता यज्ञ करनेमें तत्पर होकर भगवान श्री हरि से मिलने वैकुण्ठ में गये। देवताओं का कार्य निर्विघ्न चलता रहे-यही उस यज्ञका उद्देश्य था। वहा उन्हें यज्ञेश्वर भगवान विष्णु के दर्शन नहीं हुआ । फिर तो ध्यानद्वारा पता लगाकर वे जहाँ भगवान विराजमान थे, वहाँ पहुँच गये । देखा, परम प्रभु भगवान श्री हरि योगनिद्रा के अधीन होकर अचेत-से पड़े हैं। तो वो देवता लोग वहीं ठहर गये। जब भगवान की निद्रा भङ्ग न हुई, तब वे देवता अत्यन्त चिन्तित हो गये। ऐसी स्थितिमें इन्द्रने प्रधान देवताओं को संबोधित करके कहा-अब क्या करना चाहिये ? देवताओं ! आप स्वयं विचार करें, भगवान विष्णु- को कैसे जगाया जाय ? तब भगवान शंकरने कहा - देवताओं ! यद्यपि किसीकी निद्रा भङ्ग करना निषिद्ध आचरण है, फिर भी यज्ञका कार्य सम्पन्न करनेके लिये तो इन्हें जगा ही देना चाहिये ।  तब ब्रह्माजी ने वभ्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया | सोचा-धनुष पृथ्वीपर है ही, यह कीड़ा उस धनुष की ताँतको काट देगा । तदनन्तर आगे की रस्सी को काटते ही झुका हुआ धनुष ऊपरको तन उठेगा फिर तो देवाधिदेव - श्रीहरिकी निद्रा टूट ही जायगी । तब देवताओं का कार्य सिद्ध होने में कोई संदेह न रहेगा। इस प्रकार मन में विचार करके प्रधान देवता अविनाशी ब्रह्मा ने वैसा करनेके लिये वम्रीको आज्ञा दे दी | तब वह वभ्री नामक कीड़ा ब्रह्माजी से • कहनेलगा-'अरे.लक्ष्मीकान्त भगवान नारायण देवताओं के भी आराध्य देव हैं । भला, उन जगद्गुरु की निद्रा मैं कैसे भङ्ग कर सकूँगा।


क्योंकि निद्रा का भंग, कथा का भंग, स्त्री षुरुष के प्रेम का भंग और मा और बच्चे को अलग करना ये सभी ब्रम्हहत्या के समान है। भगवान् ! इस धनुष की डोरी को काटने से मुझे कौन-सा लाभ है, जिसके कारण ऐसा घृणित कार्य किया जा 'सके । सभी प्राणी किसी-न-किसी स्वार्थको लेकर ही नीच कर्म में प्रवृत्त होते हैं यह बिल्कुल निश्चित बात है। इसलिये यदि मेरा कोई निजी काम बननेवाला हो, तभी इसे काटनेमें मैं तत्पर हो सकूँगा । 

ब्रह्माजी ने कहा-सुनो ! हम लोग तुम्हें यज्ञ में भाग दिया करेंगे। यह निजी लाभ मानकर अब तुम शीघ्र हमारा काम करो अर्थात् भगवान श्रीहरि को जगा दो। देखो यज्ञमें हवन करते समय अगल-बगल जो भी हविष्य गिर जायगा वह तुम्हारा भाग है-यह समझ लो । अच्छा। अब हमारा काम बहुत जल्दी हो जाना चाहिये

सूतजी कहते हैं-इस प्रकार ब्रह्मा जी के कहने पर उसी क्षण वभ्रीने प्रत्यंचा को जो नीचे भूमिपर थी, खा लिया । फिर तो धनुष बन्धनमुक्त हो गया। प्रत्यंचा कटते ही दूसरी ओरकी डोरी भी वैसे ही ढीली पड़ गयी। उस समय बड़े जोर से भयंकर शब्द हुआ, जिससे देवता भयभीत हो उठे । चारो ओर अन्धकार छा गया । पृथ्वी कांपने लगी। सूर्य की प्रभा क्षीण हो गयी। सभी देवता घबराकर सोचने लगे - 'अहो, ऐसे भयंकर समय में पता नहीं क्या होनेवाला है ।' ऋषियों ! समस्त देवता यों सोच रहे थे। इतनेमें पता नहीं, भगवान विष्णु का मस्तक कुण्डल और मुकुट सहित कहाँ उड़कर चला गया । कुछ समय के बाद जब घोर अन्धकार शान्तं हुआ, तब भगवान शंकर और ब्रह्मा जी ने देखा श्रीहरिका श्रीविग्रह बिना मस्तकका पड़ा हुआ है । यह बड़े आश्चर्य की बात सामने आ गयी । भगवान विष्णु के केवल घड़को देखकर उन श्रेष्ठ देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। चिन्ताके कारण अत्यन्त दुखी होकर उनकी आँखें जल बरसाने लगी । वे विलाप करने लगे - हा नाथ ! आप तो देवताओं को भी आराध्यदेव एवं सनातन प्रभु हैं। फिर भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओंको निष्प्राण करनेवाली यह कैसी दैवी विचित्र घटना घट गयी ।




ब्रह्मा ने कहा-काल भगवान ने जैसा विधायक स्व रंखा है, वैसा अवश्य ही होता है यह बिल्कुल असंदिग्ध बात है। जैसे बहुत पहले कालकी प्ररणासे भगवान् शंकरने मेरा ही मस्तक काट दिया था, और शाप से महादेव का लिंग भी गिर गया था, उसी तरह आज भगवान विष्णु का भी मस्तक धड़से अलग होकर कही जा गिरा है। शचीपति देवराज इंद्र के हजारों भगकी प्राप्ति उन्हें दुखी होकर स्वर्गसे गिर जाना पड़ा और मानसरोवर में जाकर वे कमलपर रहने लगे । अतएव तुम्हें बिल्कुल शोक नहीं करना चाहिये। तुम सभी उन सनातनमयी विद्यास्वरूपिणी महामायाका चिन्तन करो। वै प्रकृतिमयी भगवती निर्गुण स्वरूपिणी एवं सर्वोपरि विराजमान हैं। अब वे ही हमारा कार्य सिद्ध करेंगी । वे जगत्को धारण करती हैं, उनका नाम ब्रह्मविद्या' भी है। सब प्राणी उन्हीं की संतान हैं ।त्रिलोकी में चर और अचर जितने प्राणी है, सबमें वे विराजमान हैं।




सूतजी कहते हैं-फिर ब्रह्मा जी ने वेदों को जो सामने देह धारण करके उपस्थित थे, आज्ञा दी |ब्रह्मा ने कहा-ब्रम्हविद्यास्वरूपिणी भगवती जगदम्बिका परम आराध्या है। उन सनातनी देवीके अङ्कोंका साक्षात्कार होना कठिन है । वे भगवती महामाया सम्पूर्ण कर्मो को सिद्ध कर देती हैं । अतः तुमलोग उनकी स्तुति करो। तदनन्तर सुन्दर शरीर धारण करनेवाले वेद ब्रह्माजी का कथन सुनकर उन भगवती का, जो ज्ञानगम्या है-महामाया नाम से प्रसिद्ध हैं तथा जिनेश्वर सम्पूर्ण जगत् अवलम्बित है, स्तवन करने लगे।

सूत जी कहते हैं- जब अङ्गों-उपाङ्गो सहित वेदों ने भगवती जगदम्बिका का स्तवन किया तथा वे गुणातीता मायामयी देवी अत्यन्त प्रसन्न हो गयी । फिर तो देवताओं को लक्ष्य करके आकाशवाणी होने लगी प्रत्येक वाणी कल्याण मयी थी। सभी शब्दों सुख भरा था । वह वाणी इस प्रकार थी

'देवताओं ! अब तुम्हें चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है। शान्तचित्त होकर अपने स्थानपर विराजमान हो जाओ । वेदों ने भलीभाँति मेरी स्तुति की है । अतः मेरी प्रसन्नता में किंचित् भी संदेह नहीं रहा । अब तुमलोग श्रीहरिके छिन्नमस्तक होनेका कारण सुनो । इस जगत्में कोई भी कार्य अकारण कैसे होगा। एक समय की बात है, भगवान - श्री विष्णु लक्ष्मी के साथ एकांत में विराजमान थे । लक्ष्मीकें मनोहर मुखको देखकर उन्हें हंसी आ गयी । लक्ष्मीने समझा - हो-न-हो भगवान विष्णु की दृष्टि में मेरा मुख कुरूप सिद्ध हो चुका है, अतएव मुझे देख कर इन्हें हँसी आ गयी। क्योंकि बिना कारण उनका यो हँसना बिल्कुल असम्भव " फिर तो महालक्ष्मी को क्रोध आ गया । सात्विक स्वभाववाली होनेपर भी वे तमोगुणसे आविष्ट हो गयीं| श्रीमहालक्ष्मी के शरीरमें भयंकर तामसी शक्ति का जो प्रवेश हुआ, उसका भी भावी परिणाम वस्तुत : देवताओं का कार्य सिद्ध करना था। वे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। तब झट उनके मुखसे निकल गया 'तुम्हारा यह मस्तक गिर जाय'। इसीसे इस समय इनका सिर क्षिरसमुद्र में लहरा रहा है। देवताओ ! इसमें कुछ कारण दूसरा भी है-वह यही कि तुम लोगों का एक महान् कार्य सिद्ध होनेवाला है। यह बिल्कुल निश्चित बात है । हयग्रीव नामक एक दैत्य हो चुका है। उसकी विशाल भुजाएँ हैं और वह बड़ी ख्याति पा चुका है। सरस्वती नदी के तटपर जाकर उसने महान् तप किया । वह मेरे एकाक्षर मन्त्र माया बीजका जप करता रहा। बिना कुछ खाये ही जप करता था। उसकी इन्द्रियों वश में हो चुकी थीं। सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था । संपूर्ण भाषणों से भूषित जो मेरी तामसी शक्ति है, उस शक्ति की उसने आराधना की। वह दैत्य एक हजार वर्षतक ऐसा कठिन तप करता रहा। तब मैं ही तामसी शक्ति के रूपमें सजकर उसके पास गयी और जैसे रूपका वह ध्यान कर रहा था. ठीक उसी रूपमें मैंने उसे दर्शन दिये । मैं सिंह पर बैठी थी। सर्वाङ्ग दयासे ओतप्रोत थे। मैंने कहा महाभाग । वर माँगो । सुव्रत ! तुम्हें जो इच्छा हो उसे देनेको मैं तैयार हूं।' मुझ देवीकी बात सुनकर वह दानव प्रेमसे विभोर हो उठा। उसने तुरंत मेरी प्रदक्षिणा की और चरणों में मस्तक झुकाया । मेरे इस रूपको देखकर उसके नेत्र प्रेम से पुलकित हो उठे और आनंद के आंसुओं से भर गये फिर तो वह मेरी स्तुति करने लगा।

हयग्रीव बोला-कल्याणमयी देवी । आपको नमस्कार है । आप महामाया है । सृष्टि स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। भक्त पर कृपा करनेमें आप बड़ी कुशल हैं। मनोरथ पूर्ण करना और मुक्ति देना आपका मनोरञ्जन है । पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश तथा इनके गुण गन्ध,रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-इन सबका कारण आप ही हैं। महेश्वरी नासिका, त्वचा, जिह्वा, नेत्र और कान आदि इन्द्रियाँ तथा इनके अतिरिक्त भी जितनी कर्मेन्द्रियाँ है, सब आप से ही उत्पन्न हुई हैं।  भगवतीने कहा-तुमने बड़ी अद्भुत तपस्या की है। मैं तुम्हारी भक्ति से भलीभॉँति प्रसन्न हूँ। तुम अपना अभिलषित वर माँगो । तुम्हें जो भी इच्छा हो, मैं देनेको तैयार हूँ।  हयग्रीव बोला-माता ! जिस किसी प्रकार भी मुझे मृत्यु का मुख न देखना पड़े, वैसा ही वर देनेकी कृपा कीजिये। मैं अमर योगी बन जाऊँ । देवता और दानव कोई भी मुझे जीतं न सके।

देवीने कहा-देखो. जन्मे हुएकी मृत्यु और मरे हुएका जन्म होना बिल्कुल निश्चित है । भला, ऐसी सिद्ध मर्यादा जगत्में कैसे व्यर्थ की जा सकती है । राक्षसराज ! मृत्यु के विषय में तो ऐसी ही बात पक्की समझ लेनी चाहिये । अतः मनमें सोच-विचारकर जो इच्छा हो, वर माँगो ।

हयग्रीव बोला-अच्छा तो, जिसकी ग्रीवा (गरदन)धोडे की हो (हयग्रीव )के हाथ ही मेरी मृत्यु हो । दूसरे मुझे न मार सके। बस, अब मेरे मनकी यही अभिलाषा है । इसे पूर्ण करनेकी कृपा करें । देवी ने कहा-महाभाग! अब तुम घर जाओ और आनन्दपूर्वक राज्य करो । यह बिल्कुल निश्चित है, हयग्रीव के सिवा दूसरा कोई तुम्हें नहीं मार सकेगा।

इस प्रकार उस दानव को वर देकर तामसिक देवी अन्तर्धान हो गयीं और वह दैत्य भी असीम आनन्द का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वही पापी इन दिनों मुनियों और वेदों को अनेक प्रकार सता रहा है । त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं है, जो उस दुष्टको मार सके । अतएव इस घोड़े का सुन्दर सिर उतारकर श्री विष्णु के धड़ से जोड़ दिया जायगा। यह कार्य ब्रम्हा जी के हाथ सम्पन्न होगा। तदनन्तर वे ही भगवान हयग्रीव देवताओं के हित-के लिये उस दुष्ट एवं निर्दयी दानव के प्राण हरेगें।

सूतजी कहते है-देवताओं से यों कहकर वह आकाशवाणी शांत हो गयी। फिर तो देव आनन्द से विठ्ठल हो उठे । उन्होंने दिव्य शिल्पी ब्रह्माजी से कहा देवता वोले-भगवन् ! श्री विष्णु के मस्तक हीन शरीर पर सिर जोड़ना रूप महत्कार्य सम्पन्न करनेकी कृपा करें ।

तमी भगवान हयग्रीव बनकर इस दानवराजका संहार करेंगे।

सूतजी कहते हैं-देवताओं की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने उसी क्षण सुरगणके सामने ही तलवार से घोड़े का मस्तक उतार लिया। साथ ही तुरंत उसे भगवान के शरीर पर जोड़ने की व्यवस्था सम्पन्न कर दी। फिर तो भगवती जगदम्बिकाके कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हो गया। वह दानव बड़ा ही अभिमानी था। देवताओं से उसकी घोर शत्रुता थी । अवतार लेनेके पश्चात् कितने समयतक भगवान उमके साथ युद्धभूमिमें युद्ध करते रहे । तब कहीं उसकी मृत्यु हुई । 'मर्त्यलोक में रहने वाले जो पुरुष यह पुण्यमयी कथा सुनते हैं, वे सम्पूर्ण दुःखंसे मुक्त हो जाते हैं-यह बिल्कुल निश्चित बात है । भगवती महामाया का चरित्र परम पवित्र एवं पापों का संहार करने वाला है । उसे जो पढ़ते और सुनते हैं। उन्हें पूर्ण सम्पत्तियाँ सुलभ हो जाती हैं ।