मरण के बाद कि क्रियाओं का महत्व क्या है भाग -6
अब तुम विवस्वान् पुत्र यमराज के घर जिस प्रकार जीवका गमन होता है, उसका वर्णन सुनो।
हे अरुणानुज! त्रयोदशाह अर्थात् तेरहवें दिन श्राद्ध कार्य एवं गरुड़ पुराण के श्रवण के अनन्तर वह जीव, तुम्हारे द्वारा पकड़े गये संर्प के समान यमदूतोंके द्वारा पकड़ लिया जाता है और पकड़े गये बन्दरके समान अकेला ही उस यमलोक के मार्ग में चलता जाता है। उसके बाद वायुके द्वारा अग्रसारित वह जीव दूसरे शरीरमें प्रविष्ट होता है, दूसरे शरीरमें जानेके पूर्वका जो शरीर है वह पिण्डज (दिये गये पिण्डोंसे निर्मित) है। दूसरी योनियोंका शरीर तो पितृसम्भव (माता-पिताके रज-वीर्यसे उत्पन्न होनेवाला) होता है। इन शरीरोंके प्रमाण, वय, अवस्था एवं संस्थान (आकृतिविशेष) आदि श्राद्ध करनेवालेकी श्रद्धा एवं देह प्राप्त करनेवालेके कर्मानुसार होते हैं। प्रथमतः यम और मृत्युलोक के बीच छियासी हजार योजन का अंतराल है। वह जीव प्रतिदिन अधिक-से-अधिक दो सौ सैंतालीस योजन और आधा कोस का मार्ग तय करता है। इस प्रकार उस जीवकी यात्रा तीन सौ अड़तालीस दिनोंमें पूरी होती है ,इस यमलोक की यात्रामें जीवको यमदूत खींचते हुए ले जाते हैं।
जो प्राणी अपने जीवनभर पापमें अनुरक्त थे, उनको इस मार्गमें जो कष्ट भोगना पड़ता है, उसको विस्तारपूर्वक सुनो - मृत्यु के तेरहवें दिन वह पापी यमदूतोंके कठोर पास में बाँध लिया जाता है। हाथ में अंकुश लिये हुए क्रोधावेशमें तनी हुई भौहों से युक्त दण्डप्रहार करते हुए यमदूत उसको खींचते हुए दक्षिण दिशा में स्थित अपने लोकको ले जाते हैं। यह मार्ग कुश, काँटों, बाँबियों, कीलों और कठोर पत्थरों से परिव्याप्त रहता है। कहीं-कहीं उस मार्ग में अग्नि जलती रहती है और कहीं-कहीं सैकड़ों दरारोंसे दुर्गम भूमि होती है। प्रचंड सूर्य की गर्मी और मच्छरों से परिव्याप्त उस मार्गमें प्राणी सियार के समान वीभत्स चीत्कार करते हुए यमदूतोंके द्वारा खींचे जाते हैं यमलोक के दारुण मार्गमें पापी जाता है और शरीरके जलनेके कारण अत्यन्त क्षीणताको प्राप्त होता है। अपने कर्मानुसार विभिन्न जंतुओंके द्वारा अंगों के खाये जाने, भेदन एवं छेदन किये जानेके कारण जीव अत्यधिक दारुण दुःख प्राप्त करता है। हे ताक्ष्य! जीव अपने कर्मानुसार दूसरे शरीरको प्राप्त करके यमलोक में नाना प्रकारका कष्ट भोगता है। यमलोक के इस मार्गमें सोलह पुर पड़ते हैं उनके विषयमें भी सुनो याम्य, सौरिपुर, नगेन्द्रभवन, गन्धर्वपुर, शैलागम, क्रौंच, क्रूर और, विचित्र भवन, बहुपद, दुःखद, नानाक्रन्दपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण, शीताढ्य और बहुभीति-ये सोलाह पुर हैं, भयंकर होनेसे ये दुर्दर्शन हैं याम्य पुरके मार्ग में प्रविष्ट होकर जीव 'है पुत्र ! हे पुत्र ! मेरी रक्षा करों' ऐसा करुणक्रन्दन करता हुआ अपने द्वारा किये गये पापों का स्मरण करता है और अठारहवें दिन वह यमराजके उस नगरमें पहुंच जाता है। वहाँ पुष्पभद्रा नामक नदी प्रवाहित होती है।
वहाँ देखनेमें अत्यन्त सुन्दर वट वृक्ष है जहाँपर जीव विश्राम करना चाहता है, किंतु यमदूत उसकों वहाँ विश्राम नहीं करने देते। उसके पुत्रोंके द्वारा स्नेहपूर्वक अथवा अन्य किसीके द्वारा कृपापूर्वक पृथ्वी पर जो मासिक पिंडदान किया जाता है, उसको वह वहां पर खाता है। तदनन्तर वहां से उसकी यात्रा सौरिपुरके लिये होती है। चलता हुआ वह मार्गमें यमदूतोंके द्वारा मुद्गर से पीटा जाता है। उस दुःख से अत्यधिक पीड़ित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है उस जन्ममें मनुष्य और पशु-पक्षियोंकी संतुष्टिके लिये मैंने जलाशय नहीं खुदवाया। गौओंकी क्षुधा-शान्तिके लिये गोचरभूमिका दान भी मैंने नहीं दिया। अत: हे शरीर! जैसा तुमने किया है, उसीके अनुसार अब तुम अपना निस्तार करो।
उस सौरिपुरमें कामरूपधारी इच्छानुसार स्थितिशील एवं गतिशील राजा राज्य करता है। उसका दर्शनमात्र करनेसे जीव भयसे काँप उठता है और अपने अनिष्टकी शंकासे ग्रस्त होकर त्रिपक्षमें पुत्रादिक स्वजनोंके द्वारा पृथ्वी पर दिये गये जलयुक्त पिण्डको खाकर आगे बढ़ता है। वहाँसे वह आगे बढ़ता हुआ मार्गमें यमदूतोंके खड्गप्रहारसे अत्यन्त पीड़ित होकर इस प्रकार विलाप करता है
हे शरीर! मैंने जलादिका सदा दान नहीं दिया है, न तो नियमसे प्रतिदिन गाय के लिये अपेक्षित गोग्रास आदि कृत्य किया है और न तो वेद शास्त्र पुस्तक का ही दान किया है। पुराण में देखे हुए मार्ग (तीर्थयात्रा आदि) का मैंने सेवन नहीं किया है, इसलिये जैसा तुमने किया है, उसीमें अपना निस्तार करो।
इसके बाद जीव 'नगेन्द्रनगर में जाता है। वहाँपर वह अपने बन्धु-बान्धवोंके द्वारा दूसरे महीने में दिये गये अन्नको खाकर आगेकी ओर प्रस्थान करता है। चलते हुए उसके ऊपर यमदूतोंद्वारा कृपाणको मुठियोंसे प्रहार किये जानेपर वह इस प्रकार विलाप करता है।
बहुत बड़े पुण्योंको करनेके पश्चात् मुझे मनुष्य-योनि प्राप्त हुई थी, किंतु मुझ मूर्खाधिराजका सब कुछ पराधीन हो गया अर्थात् मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी मैं कुछ सत्कर्म न कर सका।
इस प्रकार विलाप करता हुआ जीव तीसरे मासके पूरा होते ही गन्धर्वनगरमें पहुँच जाता है। तदनन्तर समर्पित किये गये तृतीय मासिक पिण्डको वहाँ खाकर वह पुनः आगेकी ओर चल देता है। मार्गमें यमदूत उसको कृपाणके अग्रभाग से मारते हैं, जिससे आहत होकर वह पुनः इस प्रकार विलाप करता है।
मैंने कोई दान नहीं दिया, अग्निमें आहुति नहीं डाली और न तो हिमालय की गुफा में जाकर तप ही किया है। अरे ! मैं तो इतना नीच हूँ कि गङ्गाके परम पवित्र जलका भी सेवन नहीं किया, इसलिये हे शरीर! जैसा तुमने कर्म किया है, उसीके अनुसार अपना निस्तार करो। हे पक्षिन्! चौथे मासमें जीव शैलागमपुर पहुँच जाता है। वहाँ उसके ऊपर निरन्तर पत्थरोंकी वर्षा होती है। पुत्र के द्वारा दिये गये चतुर्थ मासिक श्राद्धको प्राप्तकर वह जीव सरकते हुए चलता है किंतु पत्थरोंके प्रहारसे अत्यन्त पीड़ित होकर वह गिर पड़ता है और रोते हुए यह कहता है।
मैंने न तो ज्ञानमार्गका सेवन किया न योगमार्गका, न कर्ममार्ग और न ही भक्ति मार्ग को अपनाया और न साधु सन्तोंका साथ करके उनसे कुछ हितैषी बातें ही सुनी हैं। अतः हे शरीर! तब जैसा तुमने किया है, उसीके अनुसार अपना निस्तार करो। मृत्यु के पांचवें मासमें कुछ कम दिनोंमें वह 'क्रौंचपुर' पहुँच जाता है, उस समय पुत्रादिके द्वारा दिये गये ऊनषाण्मासिक श्राद्ध पिण्ड और जल का सेवन करके वहाँ एक घड़ी विश्राम करता है। हे कश्यप पुत्र! इसके बाद छठे मासमें जीव 'क्रूरपुर की और चल देता है। मार्गमें वह पृथ्वी पर दिये गये पञ्चम मासिक पिण्डको खाकर जलपान करता है। तत्पश्चात वह क्रूरपुरकी ओर फिर बढ़ता है, किंतु यमदूत मार्गमें उसको पट्टिशों (अस्त्र विशेष)-द्वारा मारते हैं, जिससे वह गिर पड़ता है और इस प्रकार विलाप करता है।
है मेरे माता-पिता और भाई-बन्धु! हे मेरे पुत्र! हे मेरी स्त्रियो! आप लोगोंने मुझे कोई ऐसा उपदेश नहीं दिया, जिससे मैं उन दुष्कृत्योंसे बच सकता, जिनके कारण मेरी इस प्रकार की अवस्था हो गई है।
इस प्रकारका विलाप करते हुए उस जीवसे यमदूत कहते हैं- अरे मूर्ख! तेरी कहाँ माता है, कहाँ पिता है, कहाँ स्त्री है, कहाँ पुत्र है और कहाँ मित्र है? तू अकेला ही चलते हुए इस मार्गमें अपने द्वारा किये गये दुष्कृत्योंके फलका उपभोग कर। हे मूर्ख! तू जान ले इस मार्गमें चलनेवाले लोगोंको दूसरेकी शक्तिका आश्रय करना व्यर्थ है। परलोकमें जानेके लिये पराये आश्रयकी आवश्यकता नहीं होती है। वहाँ स्वयं किये गये कर्म (स्वकर्मार्जित) पुण्य ही साथ देता है। तुम्हारा तो उसी मार्गसे गमन निश्चित है, जिस मार्गमें किसी क्रय-विक्रय के द्वारा भी अपेक्षित सुख-साधनका संग्रह नहीं किया जा सकता।