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03 / Oct / 2022


मरण के बाद कि क्रियाओं का महत्व क्या है भाग -7

इसके बाद वह जीव 'विचित्र नगर के लिये चल देता है। रास्तेमें यमदूत उसको शूलके प्रहारसे आहत कर देते हैं, जिसके कारण वह दुखित होकर इस प्रकारका विलाप करता है। हाय! मैं कहाँ चल रहा हूँ , मैं तो निश्चित ही अब जीवित नहीं रहना चाहता, फिर भी जीवित हूँ मरे हुए प्राणी की मृत्यु पुनः नहीं होती।

इस प्रकारका विलाप करता हुआ वह जीव यातना शरीरको धारण करके "विचित्र नगर में जाता है। जहाँपर विचित्र नामका राजा राज्य करता है। वहाँपर वह षाष्मासिक पिण्डसे अपनी क्षुधाको शान्त कर आगे आनेवाले नगरकी ओर चल देता है। मार्गमें यमदूत भालेसे प्रहार करते हैं,।

मेरे माता-पिता, भाई, पुत्र कोई है अथवा नहीं है, जो इस दु:खके सागर में गिरे हुए मुझ पापीका उद्धार कर सके। ऐसा विलाप करता हुआ वह जीव मार्गमें चलता रहता है। उसी मार्गमें 'वैतरणी' नामकी एक नदी पड़ती है, जो सौ योजन चौड़ी है और रक्त तथा पीबसे भरी हुई है। जैसे ही मृतक उस नदी के तट पर पहुंचता है, वैसे ही वहां पर नाववाले-मल्लाह आदि उसको देखकर यह कहते हैं कि यदि तुमने वैतरणी गौका दान दिया है तो इस नावपर सवार हो जाओ और सुखपूर्वक इस नदी को पार कर लो। जिसने वैतरणी नामक गौका दान दिया है, वही सुखपूर्वक इस नदी को पार कर सकता है। जिस व्यक्तिने वैतरणी गौका दान नहीं दिया है, उसको नाविक हाथ पकड़कर घसीटते हुए ले जाते हैं। तेज और नुकीली चोंचसे कौआ, बगुला तथा उलूक नामक पक्षी अपने प्रहारसे उसे अत्यन्त व्यथित करते हैं। हे पक्षी! अन्त समय आनेपर मनुष्योंके लिये वैतरणी का दान ही हितकारी है। यदि प्राणी अपने जीवनकालमें वैतरणी नामक गौका दान देता है तो वह गौ समस्त पापों को नष्ट कर देती है और उसको यमलोक न ले जाकर विष्णु लोक को पहुँचा देती है। सातवाँ मास आ जानेपर मृतक 'बहुपद' नामक पुरमें आ जाता है। वहाँपर सप्तमासिक सोदक पिण्डका सेवन करके आगे बढ़ते हुए परिघ आघात से पीड़ित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है।

हे शरीर! मैंने दान, आहुति, तप, तीर्थ स्नान तथा परोपकार आदि सत्कृत्य जीवनपर्यन्त नहीं किया है। हे मूर्ख! अब जैसा तुमने कर्म किया है, वैसा ही भोग करो। हे ताक्ष्य। इसके बाद वह जो आठवें मासमें 'दुखद पुर' पहुँचता है। वहाँ स्वजनोंके द्वारा दिये गये अष्टमासिक पिण्ड और जलका सेवन करके 'नाना क्रन्द' नामक पुरकी ओर प्रस्थान कर देता है। मार्गमें चलते हुए मुसलाघात से पीड़ित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है। हाय! कहाँ चंचल नेत्रों वाली पत्नी के चापलूसी भरे वचनोंके द्वारा किये गये मनोविनोद के बीच मेरा भोजन होता था और कहाँ भाला-बर्छियों तथा मुसलों के द्वारा मुझे मारा जा रहा है।

इस प्रकार विलाप करता हुआ वह जीव नवें मासमें 'नानाक्रन्दपुर पहुँच जाता है। तदनन्तर नवें मास में पुत्र द्वारा दिये गये पिण्डका भोजन करके वह नाना प्रकारका विलाप करता है। तत्पश्चात् यमदूत दसवें मासमें उसको 'सुतप्तभवन' ले जाते हैं। मार्गमें वे उसको हलसे मारते-पीटते हैं, जिससे आहत होकर वह इस प्रकार विलाप करता है। 

हाय! कहाँ पुत्रोंके कोमल-कोमल हाथोंसे मेरे पैर दाबे जाते थे और कहाँ आज इन यमदूतोंके वज्रसदृश कठोर हाथोंसे पैर पकड़कर मुझे निर्दयतापूर्वक घसीटा जा रहा है! दसवें मासमें वहां पर पिण्ड और जलका उपभोग करके वह (जीव) पुनः आगेकी ओर सरकने लगता है। ग्यारहवाँ मास पूर्ण होते ही वह 'रौद्रपुर' पहुँच जाता है मार्गमें यमदूत जैसे ही उसकी पीठपर प्रहार करते हैं, वह चिल्लाते हुए इस प्रकार विलाप करता है। कहाँ मैं रूईसे बने हुए अत्यन्त कोमल गद्देपर लेटकर प्रतिक्षण करवटें बदलता था और कहाँ आज यमदूतोंके हाथोंसे निर्दयतापूर्वक मारी जा रही लाठियों प्रहार से कटी पीठसे करवट बदल रहा हूँ!

हे द्विज! इसके पश्चात् वह जीव पृथ्वी पर दिये गये जलसहित पिण्डको खाकर 'पयोवर्षण' नामक नगर की और प्रस्थान करता है। रास्ते में यमदूत कुल्हाड़ीसे उसके सिरपर प्रहार करते हैं। हताहत होकर वह इस प्रकारका विलाप करता है। हाय! कहाँ भृत्योंके कोमल-कोमल हाथोंसे मेरे सिरपर सुवासित तेलकी मालिश होती थी और कहाँ आज क्रोध से परिपूर्ण यमदूतोंके हाथोंसे मेरे इस सिरपर कुल्हाड़ियोंका प्रहार हो रहा है!

इस 'पयोवर्षण ' नामक नगरमें बह मृतक ऊनाब्दिक श्राद्ध का दुःख पूर्वक उपभोग करता है। तदनन्तर वर्ष बीतते ही वह 'शीताढ्य' नगरकी ओर चल देता है। मार्गमें बढ़ते हुए उस मृतककी जिह्वाको यमदूत छूरी से काट डालते हैं, जिससे दुखित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है। अरे! कहाँ परस्पर प्रिय वार्तालाप के द्वारा इस जिह्वा के रस माधुर्य की प्रशंसा की जाती थी, कहाँ आज मुँह खोलनेमात्रपर ही तलवार के समान तीक्ष्ण छूरी आदिके द्वारा मेरी उसी जिह्वाको काट दिया जा रहा है! तदनन्तर उसी नगरमें वह मृतक वार्षिक पिण्डोदक तथा श्राद्ध में दिये गये अन्य पदार्थों का सेवन कर आगेकी ओर बढ़ता है। पिण्डज शरीरमें प्रविष्ट होकर वह 'बहुभौति" नामक नगरमें जाता है। वह मार्गमें अपने पापका प्रकाशन और स्वयं की निन्दा करता है। यमपुरीके इस मार्गमें स्त्री भी इसी-इसी प्रकारका विलाप करती है।

इसके बाद वह मृतक अत्यन्त निकट ही स्थित यमपुरीमें जाता है। वह यमलोक चौवालीस योजनमें विस्तृत है। उसमें श्रवण नामक तेरह प्रतीहार हैं उन प्रतीहारोंको श्रवणकर्म करनेसे प्रसन्नता होती है। अन्यथा वे क्रुद्ध होते हैं। ऐसे लोकमें पहुँचनेके पश्चात् प्राणी मृत्यु काल तथा अन्तक आदिके मध्य में स्थित क्रोध से लाल-लाल नेत्र वाले काले पहाड़ के समान भयंकर आकृति से युक्त यमराजको देखता है। विशाल दांतों से उनका मुखमण्डल बड़ा ही भयानक लगता है। उनकी भ्रू-भंगिमा तनी रहती हैं, जिससे उनकी आकृति भयानक प्रतीत होती है। अत्यन्त विकृत मुखाकृतियोंसे युक्त सैकड़ों व्याधियाँ उनको चारों ओर से घेरे रहती हैं। उनके एक हाथमें दण्ड और दूसरे हाथमें भैरव-पाश रहता है।

यमलोक में पहुँचा हुआ जीव यमके द्वारा बतायी गयी शुभाशुभ गतिको प्राप्त करता है। जैसा मैंने तुमसे पहले कहा है, उसी प्रकारकी पापात्मक गति पापी जीवको प्राप्त होती है। जो लोग छत्र, पादुका और घरका दान देते हैं, जो लोग पुण्य कर्म करते हैं वे वहां पर पहुँचकर सौम्य स्वरूपवाले, कानोंमें कुण्डल और सिर पर मुकुट धारण किये हुए शोभासम्पन्न यमराजका दर्शन करते हैं। चूँकि वहाँ जीवको बहुत भूख लगती है, इसलिये एकादशाह, द्वादशाह, षण्मास तथा वार्षिक तिथि पर बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। हे खग श्रेष्ठ ! जो व्यक्ति पुत्र, पुत्री तथा अन्य सगे-सम्बन्धियों के द्वारा कहे गये उसके स्वार्थको ही जीवनपर्यन्त सिद्ध करता है और अपने परलोकको बनाने के लिये पुण्य कर्म नहीं करता, वही अंत में कष्ट प्राप्त करता है।

हे गरुड! मृत्युके पश्चात् संयमनीपुरको जानेवाले प्राणी की जो गति होती है और वर्षपर्यन्त जो कृत्य किये जाते है, उसको मैंने कहा।  श्रीभगवान् ने कहा-हे अरुणके छोटे भाई गरुड! नरक तो हजारों की संख्या में हैं।
( विस्तृत जानकारी के लिए अट्ठाईस नर्को का वर्णन ये ब्लॉग पढें )
लेकिन जिस जीव का जैसा कर्म होता है उसको उसी के अनुरूप नर्क की प्राप्ति होती है। इनके अतिरिक्त बहुत-सी पापाचार-योनियाँ भी हैं, जिनमें जीवात्माको कष्ट भोगना पड़ता है । उन सभी योनियोंको पाकर प्राणी मनुष्य-योनिमें आता है और कुबड़ा, कुत्सित, वामन, चाण्डाल और पुल्कश आदि नर योनियोंमें जाता है। अवशिष्ट पाप पुण्य से समन्वित जीव बार-बार गर्भमें जाते हैं और मृत्युको प्राप्त होता है उन सभी पापों को समाप्त हो जानेके बाद प्राणी को शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय आदिको आरोहिणी-योनि प्राप्त होती है। कभी-कभी वह सत्कर्मसे ब्राह्मण, देव और इन्द्रत्वके पदपर भी पहुंच जाता है। मृत्युलोक में जन्म लेनेवाले प्राणी का मरना तो निश्चित हैं।